राजकोट चातुर्मास | Rajkot Chatumarsh

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Rajkot Chatumarsh by श्री साधुमार्गी जैन - Shree Sadhumargi Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६). , सम्य की श्राति मन न ~~ ^ 4 ०09 ~ ~ ५ ` श्राचरण का निषेध. किया है. आजकल साम्प्रदायिकतो के श्राग्रह के कारण एक-दूसरे की न्याय-सखगत ओर शाख सम्मत चात मानना भी कठिन है ! किन्तु पराचीन टीका के आधार से यदि इनका एक असली अर्थ समझा जाय तो पता लगे कि दने मियेध का क्या उदेश्य है । दमने जो पन्द्रह कर्मादार्नो की व्याख्यां की है वह हरीभद्रीय टीका के आधार से की है । हरीभद्रीय यैका पर जेनों का वहतं ्राघार दै । यद्यपि हरीः भद्रीय से कुछ साम्प्रदायिक मतसेद है फिर भी उनकी रीका को भ्रथेज्ञान के लिए चुत आधार-भूत साना जाता है । पन्द्रह कर्मादानो का संकुचित र्थं किस प्रकार किया जाता है उसके लिए एक कैसवाणिन्जे' शब्द को ही लीजिये । कई लोग केसवाशिज्जे का अर्थ, ऊच व ऊनी वस्त्रों का व्यापार करना कहते हैं । और. कई लोग तो इनसे भी झारे चढ़कर सूत व सृती वस्नो ऊ व्यापार को भीं केशवाणिलज्य सें शामिल करते हे । इनकी दलील है कि कपास भी एक प्रकार के पधे का ही केश है । इस प्रकार संकुचित अर्थ किया जाता है । किन्तु हरीसद्वीय टीका में केशवाणिज्य का शर्थ करते इुए फेश शब्द को छक्तणा माना जाता है. । अर्थात्‌ उच्तण से केश ` शब्द्‌ का अर्थं केवल केश न करके केशवाली दासियां किया गया है । पहले जमाने में उप्दर केद्योंवाली दालियों को एक देश से इसरे देश में बेचने का धंधा किया जाता था । ऐसा धधा करना श्रावक कै लिप वार्जत है। मुसलमानों की हृद्दीसों भी इंसान का वचना गुनाह माना. गया दै 1 श्राज की हमारी सरकार भी दासदासी के विक्रय को श्रपराध मानती .




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