श्रीं योगदर्शन | Yogdarshan

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Yogdarshan by काशी - Kashi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धपिका । ५ अरविद्याकी धिति दै, तच तक जीवरूपी चैतन्य अपने आपको अन्तः- करण माने हुए है, जब तक उसका मानना है तब तक उस अन्तःकरणके कामम उसका पखना भी रहेगा और जब तक यह भ्रममूरुक सम्बन्ध रहेगा तब तक नाना खुखदुःख-रूपी कम्मोंमें फँसता हुआ जीव आवागमनरूपी चक्र-पथमे भ्रमता रहेगा । “ योग » शब्द्का अथं जोड़ना है अर्थात्‌ जीवरूय चतन्य जो अचिद्यामे फंसकर परमात्मा परब्रह्यसे भिन्न हो रहा है, उसकी इख ॒भिन्नताको दूर करके उसके पहले रूपमे उसको खाकर जहांसे निकला था वीं पुनः पटुचा देनेका नाम योग है अर्थात्‌ जीवात्माको परमात्मामे जोडनेका नाम योग है । इस अकार जीवको मुक्तिपदे पटचनेके अथं वेदौ श्रौर शाखौमे जितने प्रकारके साधन वर्णन किये गये है वे सब चार विभागोंमें विभक्त है, यथा-मंत्रयोग, हटयोग, ययोग ओर राजयोग । शास््रोक्त 'किसी मंत्रका जप और शास्त्रोक किसी रूपका ध्यान करते करते 'चित्त-बूत्ति-निरोध द्वारा मुक्तिपथ में अग्रसर होने का नाम मंत्रयोग है, शारीरिक क्रिया द्वारा चित्त-दत्ति-का निरोध करके सुक्तिपथमें अग्रसर होनेका नाम दटयोग है, पट्चक्रके भेद द्वारा बहिर्मुखी शक्तिको ब्रह्मारडमे लय करके सुक्तिपथमे अग्रसर होनेका नाम लययोग दै जीर केवल बुद्धिकी सदायतासे ब्रह्मविद्या -विचार द्वारा ` चित्तच्त्तियोसे उपराम होकर सुक्तिपथमे अग्रसर होनेका नाम राजयोय है * । जिस सूलसित्ति पर ये चारों साधन-मार्य स्थित हैं उसका विवरण सातो दुर्शन पुप्ट करते है, उन दशेनोमें से योगिराज महपिं पतञ्जलिङृत योगदशंनने साधन-मा्के क्रिया-सिद्धांशको भखी- माति सार्वभौम दृष्टिसे वर्णन किया है । सूज्रकार महरषिने अपने दुर्शनश्रव्थको चार शागोमें चिमक्त किया है; प्रथम भाग योग श्र्थात्‌ समाधिका वणेन किया है, द्वितीय माग में योगके अनुकूल और योगके प्रतिकूल गुणों और क्रियाओका वर्णेन किया है, तृतीय मे योगविभूतियोंका वर्णन किया है और चतुर्थ भागमें कैचल्य अर्थात्‌ योग-साघधनके छच्यका वर्णन किया है । के इन चार प्रकारके साधनोंका विस्तारित विवरण स्वतन्त्र स्वतन्त्र चार योगसदिताओंमें द्रव्य हैं । न~~ ~~~




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