तत्त्व - चिन्तामणि भाग - 2 | Tattw - Chintamani Bhag - 2

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Tattw - Chintamani Bhag - 2 by जयदयाल गोयन्दका - Jaydayal Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मजुष्यका कतंब्य ७ इता होनेकी कोई आवश्यकता नहीं । मगवान्‌में चित्त लगानेसे भगवत्कृपासे मनुष्य सारी कठिनाइयोंसे अनायास ही तर जाता है श्मच्चित्तः स्वदुगाणि मत्यसादाचरिष्यसि ।” भगवानने और भी कहा है-- देवी येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायमितां तरन्ति ते ॥ ( गीता ४। १४) धह मेरी अरोकिक--अति अद्भुत त्रिगुणमयी योगमाया बहुत दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरी ही शरण हो जाते हैं वे इस मायाकों उछद्दन कर जाते हैं अर्थात्‌ संसारसे सहज ही तर जाते हैं ।' सब देशों और समस्त पदार्थों सदा-सबंदा भगवानका चिन्तन करना और भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार चलना ही झरणागति समझा जाता है । इसीको ईश्वरकी अनन्यभक्ति भी कहते हैं । अतएव जिसका ईश्वरमें विश्वास हो, उसके लिये तो इश्वरका आश्रय ग्रहण करना ही परम कर्तव्य है । जो भलीमाँति इईश्वरके शरण हो जाता है, उससे ईश्वरके प्रतिकूल यानी अशुभ कर्म तो बन ही नहीं सकते । वह परम अमय पदकों प्राप्त हो जाता है, उसके अन्तरमें शोक-मोहका आत्यन्तिक अभाव रहता है, उसको सदाके लिये अठछ शान्ति प्राप्त हो जाती है और उसके आनन्दका पार ही नहीं रहता । उसकी इस अनिर्वचनीय स्थितिको उदाहरण, वाणी या संकेतके द्वारा समझा या समझाया नहीं जा सकता । ऐसी स्थितिवाले पुरुष खयं ही जब उस सितिका वर्णन नहीं कर सकते तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है! मन-




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