पद्य - पारिजात | Padh-parijat

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : पद्य - पारिजात  - Padh-parijat

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

केशव प्रसाद मिश्र - Keshav Prasad Mishr

No Information available about केशव प्रसाद मिश्र - Keshav Prasad Mishr

Add Infomation AboutKeshav Prasad Mishr

डॉ पीताम्बरदत्त बडध्वाल - Peetambardatt Bardhwal

No Information available about डॉ पीताम्बरदत्त बडध्वाल - Peetambardatt Bardhwal

Add Infomation AboutPeetambardatt Bardhwal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
कबीर ७: ` हरि.बिन वैल बिराने हैहै । चार पाँव दुद्‌ सिग गु ग॒सुख ` तब कैसे गुन गैर । उठत बैठत ठेंगा परिहै तब कत मूङ्‌ लुकैरै । फाटे नाकन ट्टे. कांधन कद को भुस चैहै | सारो दिन डोलत बन महिया अजहूँ न पेट अचेहै । जन भगतन को कहो न साने कीयेा अपने पैहै । दुख सुख करत महाध्रम वृङौ अरनिक योनि भरमैहै । रतन जनम खये प्रभु बिसस्यो इह श्रवसर कत पैहै । भ्रमत फिरप तेलक के कपि ज्यों गति बिनुरेनि विरैरै । कहत कबीर राम नाम बिनु मूँड़ धुनै पछितैहै ॥ ६ ॥ हरि बिन कौन सहाई मन का। मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागों सब फनका। आगे कौ कि्कु तुहा बाँधहु कहा भरोसा धन का। कहा विसासा इस भांडे का इतक लागे ठनका । सगत धर्म पुन्न-फल पावहु बांदहु पद-रज जन का ! करै कबीर सुनहु रे संतह इहु मन उड्न पखेरू बन का ॥५७॥ ऐसे लोगन स्यों क्या कहिए । हरि जस सुनहि न हरि गुन गावदहि,वातन दी असमान गिरावहि । जो प्रभु कीए भगति ते बाहज, तिनते सदा डराने रहिए । आप न देहि चुरू भरि पानी, तिहि निंदहिं जिह गंगा झानी । बैठत उठत कुटिलता चाल, श्राप गण ॒श्नोरनह्‌ घालदि' ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now