परमाथ - पत्रावली तृतीय भाग | Parmaath - Patrawali Tritiya Bhaag

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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5 तृतीय भाग नामका जप करना चाहिये । यदि सगुणवाचकः नाम हो तो सगुणरूपका ध्यान करते हुए अथवा निमुणवाचक नाम हो तो सत्‌-चित्‌-भानन्ट आदिं विद्योपणोके सहिन निगुण वह्यका ध्यान करते हुए नाम-जप करना चाहिये । ( २ ) सर्वव्यापक परमात्माके स्वरूपमे स्थित रहते इण समष्टि बुद्धि--क्षानचश्वु ओढा संसार, शरीर ओर कर्मक द्र्ण-साश्री रहना चाहिये । अहङ्कार ओर क्त्वाभिमानका त्याग कर देना चाहिये । उन्टीसे अन्तःकरणमे राग-द्वेपादि विकाराका उदय होता दै । ओर जवतकः अन्तःकरणमे इन विकारोका अनुमान दो तवतकः सवंव्यापी परमात्माके खरूपम स्थित टोतेमे कमी सखमद्नी चाहिये । ( £ ) चित्तको सदा प्फ रखना चास्थि । चिना हुए भी प्रफुछताका अनुभव करना चाहिये 1 चौथी वात प्रथम श्रेणीके अर्थात्‌ नये साधकके लिये दे । ऊपरकी तीन स्थितियोमे स्थिन ग्टनेसे खनः प्रसन्ना चनी रटनी है, साथ ही दटयमे निर्मटना, शायीरमे टल्कापन, ख्य जगतस सत्ताका अभाव, उच्छियामे चेननता, आटस्यका अभाव (3 ~ ५ अभावः वेयाग्यकी चृद्धि इन्यादि वात भी आप-से-आप था जाती ह । भजन जिनना दो, बरहुमृख्य दोना चाटियि । जो अजन निष्काममाव नथा शुम्सीनिसे ओर ध्यानक्रे साथ निरन्तर रोना टै, ची वहुमृल्य भजन टै ! सो निष्काम भाव और गुप्तरीतिकी दृष्टिसि तो आपलोगोका भजन ठीक ही मातम




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