कुमारपाल चरित्रसंग्रह | Kumarpal Charitrasangrah

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Book Image : कुमारपाल चरित्रसंग्रह  - Kumarpal Charitrasangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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, किञ्चित्‌ प्रास्ताविक ८३) कुमारपालपयोध - प्रबन्ध जैसा कि ऊपर वर्णन दिया गया है इस संग्रहके तीसरे प्रन्थका नाम 'कुमारपालप्रबोध - प्रबन्ध है । यह नाम हमने प्रन्थकी प्रारंभिक कण्डिकके उष्ेख परमे अङ्कित किया है । उसमें लिखा है. कि- “श्रीकुमारपाठभूपालस्थ प्रारम्यतेडय॑ प्रबोधप्रबन्धः ।' इस उछलेखके सिवा प्रन्थमें और किसी जगह अथवा अन्तिम पुष्पिका लेखमें भी इसका खास नाम लिखा हुआ हमें प्राप्त नहीं हुआ । प्रूनामें उपलब्ध एक त्रुटित प्रतिमें प्रबोध इस शब्दकी जगह प्रतिबोध, देसा पाठ मी मिला है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका नाम 'प्रतिबोध प्रबन्ध” भी हो सकता है जर ॒श्रायद्‌ इसी नामको लक्षय कर उक्त दूसरे न॑बरके चरिते कतौ सोमतिलकसूरिने यह लिला है कि इसका विस्तार 'कुमारपालप्रतित्रोध' शाख्रसे जानना चाहिए । दोनों शब्दोंका अर्थ प्रायः एक ही हे, इससे नाममें कोई बिशेष मेद नहीं पड़ता । इस प्रन्यका मुद॒ण करते समय हमें प्रथम एक ही प्रति प्राप्त हुई थी जो पाटणके भण्डार की धी । इस प्रतिके अन्तम जो श्रन्थलेखनप्ररासि' दी गई है और जिसको हमने इसके साथ मुद्रित किया है ( देखो, १० ११२ ) उसते ज्ञात होता है कि वि. सै. १४६४ में, देवलपाटक ( काठियावाडके देखवाडा ) में पंडित यावन नामके यतिवरके भदेरसे, श्रावक ोगोने अपने गच्छके अनुयायियोंके पढनेके लिये इस चरितकी प्रतिलिपि करवाई थी । पाटणकी उक्त प्रति कुछ कुछ अथुद्ध थी इस लिये इसका संशोधन करनेमें हमें कुछ कठिनाई ही रही, तो भी यथामति पाठ्युद्धि करनेका हमने पूरा प्रयत्न किया । ्न्थका परा मुद्रण हो चुकने बाद, ह्मे बीकानेरसे साहिखप्रिय श्रावकबन्धु श्रीयुत अगरचन्द्रजी नाहटाकी तरफसे इस प्रन्थकी एक और प्रति मिली जो वि० सं० १६५६ की लिखी हुई है । उससे इसका मिलान करने पर हमें इन दोनोंमें परस्पर कहीं कहीं पाठभेद उपलब्ध हुए. जिनमें छुछ तो मात्र शाब्दिक परिवर्तन खरूपके हैं और कुछ पंक्तियोकि और पोंकि न्यूनाधिकत्व बतछाने वाले हैं । इनमेंसे जो पाठमेद कुछ खास विशेषत्व रखते हैं उनको हमने इसके साथ परिरिष्टके रूपमे दे दिये हैं । सबसे अधिक विशेषतावाला पाठमेद है वह्द प्रारंभके, मंगलाचरणवाले कोकों ही का है । हमारे मुद्रित प्रन्थमें मंगलाचरणके जो ४ पद्य मिलते हैं उनसे सर्वधा भिन्न प्रकारके ४ पद्य इस बीकानेरवाली प्रतिम प्राप्त होते हँ । ( देखो परिरिष्ट ^ ) । इसका कारण यह हो सकता है कि इस प्रन्थके संकलन कतोने पहले जो एक भादरी तैयार किया होगा उसकी प्रतिलिपिवारी ये पाटण ओर प्रूनावाटी प्रियां होनी चाहिय । उसके बाद संकलन कर्ताने प्रन्थमें जो कुछ थोडा बहत पीछेसे संशोधन ~ परिवर्तेन किया होगा उप आदर्शकी प्रतिलि- पिवाली परंपराकी यह बीकानेरवाली प्रति होनी चाहिये । क्यो किं इस प्रतिके पाठ, हमारी मुद्रित प्रतिके पाठसे, शब्दसन्दभ और बाक्यरचनाकी दृष्टिसे कुछ विष परिमार्जित माद्धम पडते हैं । ऐसे संकलनात्मक प्रन्थोंकी प्रतियोंमें इस तरहके विशेष पाठमेद, इस प्रकार किये गए संशोधन - परिवर्तनके कारण, प्रायः उपलब्ध होते रहते हैं । इससे इसमें कोई खास आश्चर्यकी बात नहीं है । बादमें हमें प्रनामें भी इस प्रन्थकी एक और तीसरी प्रति प्राप्त हुई जो भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटके राजकीय ग्रन्थ संप्रद में रक्षित है । यह प्रति नुटित है | प्रारंभके १० पत्र बिल्कुठ ही नहीं है और बीचमेंके भी कुछ पत्र छुप्त हैं पर अन्तकां पत्र विमान है । यह प्रति वि. सं. १४८२ की लिखी हुई है और भट्टारिक श्री जयतिलकसूरिके शिष्य पं. दयाकेशरगणिको, ओसबंशीय गोठी संग्रामकी पत्नी बाई जासूने लिखा कर समर्पित की है । इसका यह पुष्पिका लेख इस प्रकार है । इति संवत्‌ १४८२ वपे फागुण शुदि पंचम्यां गुरौ भीमति भी तपा पक्षे भीरज्ञागरसरीम्बराणां गच्छे भटहारिक धीजयतिलकसरीस्व(भ्व)राणां शिक्ष (ष्य ) पं० दयाकेशारिगणिवराणां भीजोसवदा भंगार गोटी संप्रामकस्य भायां बाह जास्‌ नाक्ना लिषाप्य प्रददौ सुदा । चिरं न॑दतु ।




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