जैनदर्शन | Jain Darshan

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Jain Darshan  by महेंद्र कुमार जैन - Mahendra kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्षयन १५ है । वास्तविक अर्थोभिं जो अपने स्वरूपको समझता है, दूसरे शब्दोमिं आत्मसम्मान करता है, भौर साथ ही दूसरेके व्यक्तित्वको भी उतना ही सम्मान देता है, वही उपयुक्त दुष्कर मार्गका अनुगामौ बन सक्ता है । इसील्यि सारे नैतिक समुत्थानमे व्यक्तित्वका समादर एक मौलिक महत्व रखता है । जैनदर्शनके उपयुक्त अनेकान्त दर्शनका अत्यन्त महत्व इसी सिद्धान्तके आधारपर है कि उसमें व्यक्तित्वका सम्मान निहित है । जहाँ व्यक्तित्वका समादार होता है वहां स्वमावतः साम्प्रदायिक संकीर्णता, संघर्षं॑या किसी भो छल, जाति, जल्प, वितण्डा आदि जसे असदुपायसे वादिपराजयको प्रवृत्ति नही रह सकती । व्यावहारिक जीवनमे भी खण्डनके स्थानमे समन्वयात्मक निर्माणकी प्रवृत्ति ही वहाँ रहती है । साध्यकी पवित्रताके साथ साधनकी पवित्रताका महान्‌ भादशं भी उक्त सिद्धान्तके साथ ही रह सकता है । स प्रकार अनेकान्तदर्शन नैतिक उत्कर्षके साथ-साथ व्यवहारशुद्धिके लिये मौ जैनदर्शनकी एक महान्‌ देन है । विचार-जगत्‌का अनेकान्तदर्दान हो नैतिक जगत्‌में आकर अहिसाके व्यापक सिद्धान्तका रूप धारण कर लेता है । इसीलिये जहाँ अन्य दर्शनोंमें परमतखण्डनपर बड़ा बल दिया गया है, वहाँ जैनदर्दनका मुख्य ध्येय अनेकान्त सिद्धान्तके माघारपर वस्तुस्थितिम्‌लक विभिन्न मतोका समन्वय रहा है । वतमान जगत्‌की विचार धाराकी दृष्टस भी जँनदर्शनके व्यापक अहिसामूलक सिद्धान्तका अत्यन्त महत्त्व ह । आजकलके जगतृकी सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपने-अपने परम्परागत बैशिष्टथको रखते हए भी विभिन्न मनुष्यजातियौ एक-दूसरेके समीप अवं गौर उनमे एक व्यापकं मानवताकौ दृष्टिका विकास हो । अनेकान्तसिद्धान्तम्‌ लक समन्वयको दृष्टसि ही यह हौ सक्ता है । इसमे सन्देह नही किं न केव कू भारतीय दर्शानके विकासका अनुगम करनेके लिये, अपि तु भारतीय संस्कृतिके उत्तरोत्तर विकासको समझनेके




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