रवीन्द्र - कविता - कानन | Ravindra Kavita Kanan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विश्वकवि । १६ इस बंशको गोरचके शिखरपर स्थापित किया । रवीन्ट्रनाथका रंग आर रूप देखकर आर्यो के सच्चे संग व रुपकी याद शा जाती है । समाज और देशके मुख्य मजुष्यों द्वारा बाघा प्राप्त होनेदे कारण इस गंशके छोगोंको अपने विकासके पथपर अग्रसर होनेकी आत्म-प्रेरणा हुई । ये बढ़े भी और बहुत बढ़े । इनको प्रतिभामें नई सृष्टि रचनेकी जो शक्ति थी उसने देश ओर साहित्यका बड़ा उपकार किया दोनोंमें एक युगान्तर पेदा कर दिया। जिसमें सृष्टि करके हजारों मजुष्योंको उस सार्ग पर शक्ति है जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष अजुमवपर टिका हुआ है जिसकी जुद्धि अपने विचारोंसे अपनेको धोखा नहीं देती वह हज़ार उपेक्षाओं ओर अखसंख्य बन्धनोंमें रहनेपर भी अपनी स्वाघोन गतिके लिये रास्ता निकाल लेता है। इनलोगोंने भो ऐसा ही किया । अपने लिये आर्यासंस्कृतिके अजुसार घर्म ओर सप्राजकी सुविधा भी करली । इनके यहां अभी उस दिनतक देवी देवतों की पूजा हुआ करती थी । इनलोगोंने ब्राह्म-समाजकी स्थापना की और उस वेदान्त वैद्य श्रह्मकी उपासना करने.छगे । रवीन्द्र- नाथके पिता मदद्ि देवेन्द्रनाथ तो पक्के ब्राह्मसमाजी थे परन्तु इनकी माताके हृद्यमें हिन्दुपनकी छाया मूर्ति पूजनके संस्कार अन्तिम समय तक मोजूद थे । देशकी तात्कालिक परिस्थिति जेसी थी ईसाई धर्म जिस चेगसे बढ्ालमें घावा मार रहा था सनातन घर्मियोंको संको- जिस तरह शषद्रखे होती जा रही थी यश प्राततिको




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