जैन धर्म में देव और पुरुषार्थ | Jain Dharm Mai Dev Our Purusarth

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Jain Dharm Mai Dev Our Purusarth by ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जी - Brahmchari Seetalprasad Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` , `, अध्याय्‌ पटला { [ १३ न री हैं, उनकी यह किया हमारे चुद्धिपूर्वक प्रयतके बिना ही होती रहती है बीर्य.इंनका अंतिम फर या सार है । उस वीयकी बढौछत या वीयंके फटसे हमारा बरीर व हमारे शरीरके अंग उपाग काम करते रहते हैं। जैसे स्थूठू घरीरमें स्वयं फल होजाता है वैसे सूक्ष्म कारण शरीरम स्वये फल होनाता ई 1 कुठ सेरगोका य्‌ मत टै किं कोई इधर पाप या पुण्यकर्मका फल देता है कर्म स्वयं फल नहीं देसक्ते क्योंकि ईयर फलदाता कर्म जड़ हैं। इस वातपर विचार किया जाये ते नहीं। .. यद वात ठीक समझमें नहीं चती है । ईश्वर अमूर्त शरीरं रदित द, मन वचने काय रदित है भने विना यह किसीके पाप पुण्यक सम्बन्धमे विचर नहीं का सक्ता, वचनकें बिना दूसरोंको आज्ञा नहीं देसक्ता, कायके बिना स्वये कोई काम नहीं कर सक्ता दै । वह सत्यदर्शी है, रागद्रेपसे रहित है | बह यदि जगतके अपूर्व जरम पे तो वह स्वये संप्री होजवि, विकारी दोजवि। कु रोग पाप पुण्य कर्मका संचय भी नहीं मानते हैं, उनके मते दशको ही सव प्रागिमेकि भटे चुरेका हिसाव रखना पढ़ता है। अमूर्तीक व शरीर रत ईश्वरसे यट काम विस्वुल, संभव नहीं है यद सवा दफ्तर कैसे रख, सक्ता है,.यद बात .कुछ भी समझें नहीं आती हैं । दोनों ही बातें ठीक नहीं. हैं- कि पाप पुण्य कर्मका.संचय होनेफ्‌ वह ईश्वर उनका फल .सुगतावे या संचय न, होनेपर ही बह ईश्वर सख दुःत पैदा कर । ईम दयावानपना, मी व सर्वशक्तिमान- पना मी .मात्रा+जावा &,.त्व रसाद्‌ जिन्‌ ¡नव्ये -पाणियोका अल




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