जिनवाणी - जैन संस्कृति और राजस्थान | Jinwani : Jain Sanskriti Aur Rajasthan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : जिनवाणी - जैन संस्कृति और राजस्थान  - Jinwani : Jain Sanskriti Aur Rajasthan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat

Add Infomation AboutNarendra Bhanawat

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सम्पादकीय | [ १५ग्र नही वनति 1 पवत भी भाति ये परोपहो और उपसर्गो की ब्राधी से डोलायमान नहीं होते । ८ की भा ज्ञान रूपी ईन्धन से ये तृप्त नहीं होने । समुद्र की भाति श्रथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ५ तीर्थकर की मयदिा का प्रतिक्रमणा नही करते । प्राकाश की भाति ये स्वाश्रयी, स्वावसम्बौ होतेह, किसी के प्रवलम्बन पर नही टिकते । वृक्ष की माति समभाव पूवक दुख-सुल को सहन करते) भ्रमर की माति किसी को विना पीडा पहुचाये शरीर-रक्षण के लिए प्राह्मर ग्रहण करते हैं । मृग की भाति पापकारी प्रदृत्तियों के सिंह से दूर रहते हैँ । पृथ्वी की भाति शीत, ताप, छेदन, भेदन श्रादि कष्टो को समभाव पूवक सहन करते है, कमल कौ भाति वासना के कीचड़ श्रौर बेभव के जल से प्रलिप्त रहते है । सूय की माति स्वसाधना एव लोकोपदेशना वे द्वारा भ्रज्ञाना घकार को नष्ट करते हैं। पवन की भाति सव्र श्रप्रतिबद्धसूपसे विचरण केरते रहै । एसे श्रमणो का बेयर्वितिक' स्वाध हो ही क्या सकता है * थे सब्र उपमाएँ साभिप्राय दो गई हू । सप की भाति थे साधु भी अपना कोई घर (विल), ये श्रमणं पूण प्रहिसर होते हैं। पदकाय (पृथ्वीकाय, श्रपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पत्तिक।थ प्रौर न्रसकाय) जीवों वी रक्षा करते हैं । न किसी को मारते हैं, न कसी को मारने की प्रेरणा देते हैं घ्ौर न जो प्राणियों का चघ वरते हैं, उनकी श्रनुमोदना करते हैं । इनका यह प्रहिसा- प्रेम भ्रत्य त सूक्ष्म श्रीर गम्भीर होता है । ये भ्र्िसा के साथ साथ सत्प, भ्रचौय म्रहमाचय भौर श्रपरिग्रहुके भी उपासक होते हैं । किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते । कामिनी श्रौर कचेन के सवथा त्यागी होते हैं । श्रावश्यकता से भी कम वस्तुश्रो की सेवना करते हैं। संग्रह करता तो होने सीखा ही नही । ये मनसा, वाचा, कर्मणा कसी का वब नहीं वरतें हथियार उठाकर किसी श्रत्याचारी-प्रयायो राजा का नाश नही करते, लेक्नि इससे उनके लोक सग्रही रूप में कोई वमी नही श्राती । भावना वी हष्टि से तो उसमे श्रौर चशिष्ट्य झाता है । य श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उततारते वर उह प्रारमवोध श्रौर उपदेश देकर सही मांग पर लाते हैं । ये पापी को मारने में नही, उसे सुधारने मे विश्वास बरते हैं । यही कारण है कि महावीर ने विपटष्टि सप चण्डकौशिक को मारा नहीं बरनु अपने प्राणी को खतरे मे डाल कर, उसे उसके भ्रात्मस्वसूप से परिचित कराया । दस फिर चपा था ? वह्‌ विप से भ्रमत वन मया । लोक-कल्याण की यह प्रिया अ्रत्य त सुक्ष्म श्रौर गहरी है । इनका लोक सम्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। ये मानव के हिंत के लिये ध्रय प्राणियों का वध करना व्यय ही नहीं घधम के विरुद्ध समभते हैं । इनकी यह लोक- सम्रह की मावना इसीलिये जनतत्र से श्राग॑ बढ़कर प्राणतत्र तक पहुँची है । यदि श्रयतना से किमी जीव वा वघ हो जाता है या पमादवश किसी को कप्ट पहुंचता है तो ये उन सब पापा से दुर हटने के लिए प्रात साय प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं । ये नग पर पंदल चलते हैं । गाव गाव ग्रौर नगर नगर में विचरण कर सामाजिक चेतना श्रौर सुपुप्त पुरुपार्थ को जागुत करते हैं । चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नहीं करते । झ्पने पास केवल इतनी चस्तुएँ रखते हैं जिहें ये श्रपने श्राप उठापर भ्रमण कर संबें । भोजन के लिये गृहस्थों के यहा से मभिक्षा लाते हैं । मिला भी जितनी प्रावप्यक्ता होती है उतनी ही । दूसरे समय के लिये भोजन का सचय ये नह्दी करते । रात्रि मे न पानी पीत है न कुछ खाते हैं ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now