भावना शतक | Bhawana Shatak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ “५ )
सब की 'अस्थिरता
रम्य हम्येतलं षलश्च वहुलं, कान्ता मनोहारिणी ।
जात्यश्वाश्रडुला गजा गिरिनिभा, आज्ञावशा आत्मजा।॥।
एतान्येकदिनेऽखिलोनि निपतत, त्यद्यन्ति ते सङ्गतिं ।
नेतरे मूढ ! निमीलिते तनुरियं ते नास्ति कं चापरम् ।।६॥
` चित्र विचित्रितत महल ्चतुल वल, सुन्दर चाग; रम्य उद्यान ।
च॑चल रथ, धोदे ्रसंख्य वह्, यह तेरा टव सुखदान ॥
हैं कुछ दिन के लिए मूढ़ रे ! ; यह स्थिर है नहीं कभी |
जच यद तन भी नदी रहेगा, क्या रह सक्ते श्चीर सभी ॥ ९॥।
सुन्दर २ चित्रों और सामग्रियों से सजाई हुई ऊं ची हवेली, मनुष्यों
के मन को चकित कर देने घाला भतुल चल, तरह * के चुक्षों तथा पुष्पों
की सुगंधित चायु से मन को हरने वारे मनोहर बगरीचे, पवनषेग
-की तरह चलने घाले असंख्य घोड़े रथ और भारी कुटुंव, यह सभी धस्तुएं
-क्या तेरे पास स्थिर रहने वारी है १ नी, कदापि नदी, यह सभी धस्तु
कुछ काल के लिए ही उपभोग करने को मिली हैं, निश्चित समय के वाद्
ये सभी चीजें अवदय ही नष्ट हो जायेगी ।
अरे मूढ ! जिस समय धारीर से आण निकलने की तैयारी होगी जीर
'जिस समय आंख चन्द् हः जार्यगीं ठस समय तो यह शरीर भी जिससे
तेरा अति निकट संबंध है, कह भी तेरा न रहेगा, फिर इन न्य चस्तुभों
की तो वात ही क्या है ।
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