सीता चरित्र | Sita Charitra

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Sita Charitra  by दयाचंद्र गोयलीय - Dayachandra Goyaliya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ *१३ करनेवासी जानको क्या सचमुच रामको मिलगई ! चाहे कुछ हो, प्रण रँ या जा परमे सीताको रामे भवनमेते निका कर लाऊंगा। ऐसा दृढ़ विचार करके भामंडलने श्रयोध्याका रास्ता लिया। वह अनेक बन; उपबन, नदी सरोवरोंको पार करता हुआ सीताकी चाहें जा रहा था; परन्तु देव ! तू भवत है, तरे आगे पुरुपार्य सिर भुकाता है कहां तो भामरडल सीता- करो अर्थां गिनी बनानेके लिए जा रहा था शौर फां उसे राततम ही एक शहरके देखतेदी जातिरपरण ले आया और बह तत्काल बिचारने लगा। रे ग्राखन्‌, तू क्यो मू हा है, तेरी सममा पर क्या पर पड द । भरर पापी, भिसकी धुनय तू पागल हुआ वन वनको राख छानता फिरता है वह तौ तेरी माजाई वहिन है । इ प्रकार माप्रणडस शरपनेको घिक्कारता हुआ लौट श्राया । राजा चन्द्रगतिने यह वात सुनते ही संसारकों न्तणभंगुर जानकर त्याग दिया और मुनि महाराजके निकट जाकर दीक्षा - सलौ । इसी समयम देवयोगसे. महारान दशषग्थ भी पु्रसहित परौजूद ये । युनि महाराजका उपदेश सुनकर और ' आपने पूर्वभवोंका हाल जानकर सब गले लग लग मिले । सीता भाईको देखते परमके आ वहातो द उसकी छात्तीसे चिपट गई। महाराज जनक और महारानी दिदेहा दोनों अपने वद्र ' हुए लालको पाक्रर हपेके मारे अंगमें फूले नहीं समाये. * “'.




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