विजयी जीवन | Vijayi Jivan

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Vijayi Jivan by दयाचंद्र गोयलीय - Dayachandra Goyaliya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनुष्यता ओर सत्यता। कितु उनका अनुचित रीति से प्रयोग करना सूर्खता हे और महात्र्‌ पाप और दुःख का कारण है। मनुष्य अपना शक्न आप है। वद काम से, क्रोष से, घृणो से, द्वेष से, जिहा लोलुपता और भोग विलासों, से भपना नाश अपने आप छर डाछता हेै। परन्तु अपने दुश्ख का फारण क्सार को समद् फर वह ससार फो दोषी उहयता है । यदह उसकी मुखता है । संसार का इसमें कुछ भी दोष नहीं है। दोष लो स्वयं उसी कादै। परंतु जो मनुष्य सदा अपने आप को दी घिकारता रहता है और अपने स्वमाव की निंदा करता रद्दता है बह भी अपने आत्मागौरव को खो बैठता है | पेसा करना भी उच्चित नहीं है । फिर क्या करना चाहिए ? मनुष्य फो सदा अपने ऊपर शासन फरना चाहिये और उत्तावली और आधेश फो रोकना चाहिये उसका हृदय ऐसा उदार दोना चाहिये कवि उसमें कभी क्रोध জা আনহা न दो और न कभी 'किसी मत वा सम्प्रदाय के प्रति घृणा द्वो । जो मनुष्य कट्टर, दुराश्नह्दी और बितंडावादी हों उनके साथ कमी वाद' विवाद नहीं करना चाहिये । शात, विनीत भौर निर्दोष भाव दी मनुष्य की पूर्णता और सत्यता फो प्रगद फरता है अर्थात्‌ जो मनुष्य शांत रहता है, दूसरे की बात में दिवा प्रयोजन दखछ नहीं देता और किसी से द्वेष नहीं रखता और न किसी का जी इुल्ाता हे वही सच्चा है | दूसरों का आदर सत्कार करो ओर अपना मान रखो अपना मार्गे-निदिट करलो और उसमें. दढ़ता ओर निर्मीकता के साथ पग रखते हषः अगे षदे चो परन्तु इसरो के. कायं मे किसी २




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