जय महावीर | Jai Mahaveer

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Jai Mahaveer  by माणकचंद रामपुरिया - Manakchand Ramapuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नान चेतना का जगता है- भुवन प्रकाशित-सा लगता है। देष-घृणा सव घुल जाते है- दरार पुण्य के खल जाते है1. मानव-मानव बनने लगता- ज्ञान हृदय में जगने लगता । लेकिन यह भी तब सम्भव है- होता पावन नर उद्भव है। ओर नही तो कोड्‌ कंसे- धो सकता है अन्तर कंसे? ऐसे ही जव घटा घिरी थी- सुख की सारी घडी फिरी थी | हिसा का सा श्राज्य विद्या था- मन मे निघन भाव छिपा था । मानव-दानव से लगते थे- अच्छे भाव नही जगते थे। जय महावीर / 17




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