साक्षी है सौंदर्यप्राश्निक | Sakshi Hai Saundarya Prashanik

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Sakshi Hai Saundarya Prashanik by रमेश कुंतल मेघ - Ramesh Kuntal Megh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ पंद्रह ] पतन, पश्चाताप जंसे शब्द) ; तथा कारणता के नियमों के लिए अभ्युद्देशीय (रिफरें- शियल ) भाषा (प्रत्यक्षीकरण, विवरण, वर्गीकरण, अमूर्तीकरण, तादात्म्थीकरण जसे शब्द) का व्यवहार हुआ । इतिहासरूप-संसारमें कारणता के वेजानिक नियम नहीं लगाए गए जिससे हमारा यह संसार नियति के बोझ से कुचला जाता रहा; अर्थात्‌ इतिहास ओर नियति मानो एक तुल्यरूपता हो गए; अर्थात्‌ इतिहास ओर कारणता परस्पर विद्वेषी हो गए; अर्थात्‌ ज्ञान की पद्धति (कारणता) के द्वारा इतिहास में जीवन का स्पंदन नहीं छुआ जा सकता, क्योकि वहां नियति की निमेम निरकुशता है। द्रतवाद की क्रियाशीलता की यह्‌ खतरनाक परिणति इतिहास-दृरमन ठथा समाज-दुदमन साबित हुई । इसने श्वम को कला का बेरी बना दिया : हमारे व्यावहा- रिक उल्लास को सौंदर्य के आनंद से बिल्कुल अलग-थलग कर डाला; हमारी प्रत्यक्ष देनिक त्रासदी की गहरी व्यथा को दूरगतिक नाटकीय त्रासदी के संत्रास से बेहद घटिया घोषित कर डाला ! किस तरह ? यह दूसरा महाप्रदन है : यथाथंता (रियलिटी) और प्रतीति (एपीयरेंस) के संबंध क्या हैं ? प्रतीति “प्रत्यक्षीकरण' (पसंप्शन) का ही फेनामना है । प्रतीति के प्रमुख रूप हैं : विव (इमेज), भ्रांति (इल्यूजन), स्वप्न, आदि । प्रतीतियां भी हमारे एेद्वियक ज्ञान के दावो की वंधता का सवाल उठाती हँ । नीत्शे (उन्नीसवीं शती का उत्तरार्ध) इहं सर्वोपरि मिथ्याकरण मानते रहे । वस्तुतः प्रतीति एक ढंग भी है । जिसके द्वारा क्रिसी प्रमेय के सारत्व (एशेस) का उद्घाटन होता है । अतः प्रतीति सार्व है । इन दोनों मे विरोध नहीं, अंतविनिमय है। प्रतीति तात्कालिक ओर प्रकट है, जबकि सारत्व संगुप्त । प्रतीति म अन्यथाकरण (डस्टाडेन ) तथा अतिशेयगमेता (हाइपर्बोल ) होती है । प्रतीति-सारत्व के ये अंतिरोध ज्ञातता की प्रक्रिया से जुड़े है! अतः प्रतीति से यथाथता (सारत्व ) की ओर संक्रमण के कई रूप हैं। यदि विज्ञान में यह न्रीक्षण, विवरण तथा' व्याख्या का त्रिपुट हैं तो कला में प्रत्यक्षीकरण, भग्नावरणचित्ततथा चमत्कार का त्रिकोण है । अतः प्रतीति कला एवं विज्ञान, दोनों में आवश्यक है; क्योंकि वह अन्वेषण है, मिथक है, भाषा है भ्रांति है, और रूपक है । श्राति की लालसा भी आदिम है (विश्वम--डेल्यूजेंस --भी मानवीय चितन में होते हैं) । रूपकों की सृष्टि भी मनुष्य की मूलभूत मनोवत्ति है । अत: कला की सौदयंबोधात्मक भ्रांतियां सचेतन प्रविधियां हैं जो एक प्रति-संसार की सजना करती हैं। ये मंतव्यपूर्ण अभिव्यंजनाएं हैं । वस्तुतः ये मनुष्य का “भ्रति के लिए संकल्पः पेश करती हैँ ताकि वह्‌ (स्वप्नो तथा अ्रांतियों में ही न डूबा रहे बल्कि) यथाथेता के मानवीय साक्षात्कार के ऐदवयं को पा सके । अतएव प्रतीति के वृत्त के 'मिथक' और 'रूपक' , “विवः ओर “'प्रतीक' आदि सूलत: कला-सौंदये तथा जीवंत मानवीय अनुभव के मेरुदंड हैं । हमने इन्हें सौंदर्यबोधदशन की बुनियादी प्रादिनिक इकाईइयां माना है (४: साक्ष्य प्रइन; ५, ६, ७ : उत्तरसाक्षी ) ।




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