कलम का सिपाही | Kalam Kaa Sipaahii
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
75 MB
कुल पष्ठ :
686
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्यारह
ही रहता है। एक न एक संयम-अनुशासन हर सृजन के साथ
लगा हुआ है । लेकिन सृजन के सुख में उससे कोई बाधा नहीं
उपस्थिति होती क्योकि, जरह तक मँ सम पाया हूँ, सृजन का
असल सुख इसमे नहीं है कि कथाकार अपने कंल्पना-लोक मे
अबाध विचरण कर सके बल्कि इसमें करि वह् जड़ वास्तविकता
को अपनी कल्पना से स्फू्तं ओर स्पंदित कर॒ सके; मूक-बधिर
तथ्यों को वाणी दे सके; जीवन के सन्दर्भ में अपने चरित्रों को
देख सके, पहचान सके, खोल सके । वह॒ सुख मुभे यर्हांमी
मिला ओर भरपूर मिला ।
सच तो यह है कि यह काम हाथ में लेते ही यही चीज मेरे
लिए पहली चुनौती बनी । वह चीज़ क्या है, उसका पता लगाओ,
जिससे यह अति-सामान्य जीवन एक विशेष व्यक्ति का जीवन
बनता हैं । कोई चमक-दमक यहाँ नहीं है, न कोई नाटकीय
तत्व, न कोई रोचक जीवन-प्रसंग, न प्रेम और साहस के वेसे
कोई प्रकरण -- नितान्त बँधा-टका जीवन एक ग्ररीब स्कूल
मास्टर का या वेसे ही ग़रीब लेखक-संपादक का । फिर भी कुछ
तो है, जो विशेष है । वह क्या हैं ? उसी को जीवन के सन्दर्भ
में देख सकने और दिखा सकने में मुभको रचनाकार का सच्चा
सुख मिला हैं ।
किताब लिखनी जब शुरू हुई तब कितनी ही बार मेरे हाथ-
पेर फूल गये । मैं समझ ही न पाता था कि मैं इसमें लिखूंगा
क्या, किताब आगे बढ़े तो कैसे बढ़े लेकिन जब इसी पीडा
भौर उद्वेग में से अचानक यह गुर मेरे हाथ लगा कि इस व्यक्ति
फे जीवन को उसके देश और समाज के जीवन से जोड़कर तो
देखो, तब जेसे सारे बंद दरवाजे यकबयक खुल गये और इस
अति-सामान्य जोवन को एक नया आशय, एक नयी अर्थवत्ता
मिल गयी । उसी को दिखाने का यत्न मैने किया ह । सफलता
मु मिली या नहीं मिली या कितनी मिली, इसका निर्णय तो
आप करगे । हाँ, यह मै ज़रूर कहना चाहता हूँ कि इस काम
को इतनी देर से शुरू करने के पीछे जहाँ मेरी अपनी मजबूरियाँ
रही हैँ वहाँ यह भी एक बड़ा कारण रहा है कि मैं तभी इस
काम को उठाना चाहता था जब मुझे अपने तईं यह विश्वास हो
कि मैं अलग हटकर, थोड़ा निरपेक्ष होकर इस व्यक्ति को देख
सकता हूँ ।
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