शांत क्रांति के श्रीगणेशकर्ता | Sant Karanti Ke Shri Ganesh Karta

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Sant Karanti Ke Shri Ganesh Karta by देवकुमार जैन - Devkumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संयमनिष्ठा की दृष्टि से आचार्यश्री का जीवन अत्यधिक उज्ज्वल था। वीतराग-वाणी को आचार्यश्री ने अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न किया| शास्त्रो में उल्लेख आया है कि “विनय मूलो धम्मो” अर्थात्‌ धर्म का मूल विनय बताया गया है। आप उस धर्म के साथ स्वर्गीय आचार्यश्री जवाहरलालजी म. के चरणों में लगभग 24 व्व तक रहे} उस समय किस तरह स्वर्गीय आचार्यदेव के चित्त की आराधना की, वह तो अनुमवगम्य होने से उसके प्रत्यक्षदर्शी ही विशेष अनुमान कर सकते हैँ । संकेत के रूप में एकाध घटना का यहां उल्लेखं कर रहे है, जिससे समग्र जीवन की विनयशीलता का भलीमांति पता लग सकता है। स्वर्गाय आचार्यश्री जवाहरलालजी म. कभी-कभी भरे व्याख्यान मेँ साघारण-सी बात के लिये भी जोर से वोल देते तो उस समय भी आप शांत और विनयशीलता के साथ गुरुदेव की वाणी को स्वीकार करते, जबकि आजकल के संतों को बड़ी गलती भी एकांत में समझाई जाये तब भी सरलता से स्वीकृत नहीं होती। आपश्री स्वर्गीय आचार्यश्रीजी का ही विनय नहीं रखते थे, बल्कि आप से दीक्षा में जितने भी बड़े संत थे, वे चाहे पढाई की दृष्टि से और समझ की दृष्टि से कम ही होते, तो भी उनका पूरा आदर-सत्कार करते। इसी विनयशीलता को आपने अपने सम्प्रदाय के सन्‍्तों के साथ ही नहीं रखा, बल्कि मारवाड सादड़ी में वृहत्साघुसम्मेलन में उपस्थित विभिन्‍न सम्प्रदायो के वड़े सन्तो का आपने विनय किया। उसको देख करके एक बड़े विचारवान गंभीर चिंतक सन्त के मुंह से सहसा निकल पडा था कि सम्मेलन की सजीव आत्मा यह है। पृथक्‌ सम्प्रदाय में रहते हुए, जिनकी छाया में खड़े रहना नीं चाहते थे, उन्दी का, उसकी भावी समुज्ज्वलता की स्थिति को सन्मुख रखकर, विनय करते हुए. सम्मेलन के नियमो को अंतःकरण से साकार रूप दे रहे है। सेवामावना भी उनके जीवन में कूट-कूटकर भरी हुई थी। बड़ों और बुजुर्गों को ही नहीं, जवान और छोटे सन्‍्तों की भी, प्रसंग आने पर बड़ी लगन से सेवा करते थे। विद्वत्ता, बडप्पन का अभिमान छू तक नहीं पाया। साधारण अवस्था में तो सभी काम करते ही थे, ३० युवाचार्य व आचार्य पद प्राप्त होने के बाद भी छोटे-से-छोटा काम करने को तत्पर रहते थे। सरलता उनमें इतनी थी, जिसको देखकर कई सनन्‍्तों ने कहा कि आपश्री को इतना सरल नहीं होना चाहिये। कई-एक आपकी सरलता का दुरुपयोग कर बैठते हैं। तय आचार्यश्री फरमाते थे कि मैं शुद्धभाव से सरलतापूर्वक जो कार्य करता हूं उसका भी यदि कोई दुरुपयोग करे तो उसमें मेरा कुछ नहीं बिगड़ता। आचार्यश्री का हृदय स्फटिकमणि के समान स्वच्छ था। {19




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