सन्मति प्रकरण | Sanmati Prakaran
लेखक :
आचार्य शांतिलाल जैन - Acharya Shantilal Jain,
पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi,
पं. बहेचरदास जीवराज - Pt. Bahechardas jeevraj
पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi,
पं. बहेचरदास जीवराज - Pt. Bahechardas jeevraj
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
288
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
आचार्य शांतिलाल जैन - Acharya Shantilal Jain
No Information available about आचार्य शांतिलाल जैन - Acharya Shantilal Jain
पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi
No Information available about पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi
पं. बहेचरदास जीवराज - Pt. Bahechardas jeevraj
No Information available about पं. बहेचरदास जीवराज - Pt. Bahechardas jeevraj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१४
अ जो प्रस्तावनागत मेरे भन्तव्योसे धिपरीत भे । एतिहासिक दृष्टिसपन्ष तथा
असाम्प्रदायिक वुत्तिवलि श्रौ पं० नाथूराम प्रेमो पुनः-पुनः यह कह रहे थे किं मुके
उनका उत्तर देना ही चाहिए; किन्तु मे अपने अन्य कार्यमिं व्यस्त रहनेके कारण
उस विशेषांककों पुरा पढ़ भो नहीं सका था। जब हिन्दीमें प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशित
करलेका निरय किया गया तब भी जुगलकिशोरजीने सिद्धसेन, उनका समय,
उनके ग्रन्थ, उनका संप्रदाय आदिके विषयमे जो आपत्तियाँ खड़ी की थीं, उनपर
विख्रार करना अनिवायं हो गया ।
अतएव प्रस्तावनामें मेने यत्रतत्र-जहां कों नये प्रकाशमें संशोधन जरूरी
था पह कर दिया है, जेसे कि--गु० पृ० ५७ और हिन्दी पृ० २ की टिप्पणी १;
गु० १० ५९ और हिन्दी पृ० ४ को टिप्पणी १; गु० पृ० ६८ और हिन्दी पृ० ११
की टिप्पणी ४; गु० पृ० ७१ और हिन्दी पृ० १४ की टिप्पणी १; गु० पृ० ७३
और हिन्दी पु० १५ की दूसरी कंडिका; गु० पृ० १०३ का 'कुंदकुंद अने उमास्वाति'
बाला प्रकरण हिन्दी १० ३९ में संशोधित है; गु० ११३ में जहाँ समन्तभव्रका
विचार पूरा हुआ है वहाँ हिन्दी पृ० ४७ में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनके
पौर्वापरयके विषयमे नये विचार जोड़े गये हे; गु० पृ० ११५ की प्रथम कंडिका
हिन्दी पु० ४९ में संशोधित है; गु० पृ० १२४ हिन्दी पृ० ५७ की टिप्पणी १;
गु० पृ० १२६ ओर हिन्दी पृ० ५९ की टिप्पणी १; गु० पु० १६२ और हिन्दी
पृ० ८७; गु० पृ० १८० पंक्ति ३ के बाद हिन्दी पु० १०१ में नया जोड़ा गया
ह; हिन्दी प्० १०९ क टिप्पणी २; हिन्दी पृ० १११ कंडिका १ कै अन्ते नया
जोडा है । इत्यादि ।
इसके अलावा प्रस्तावनाके अन्तमं (प° ११४-१२४) 'संपूर्त' के रूपमें
धाब् जुगलकिशोरजोकी आपत्तियोके विषयमे विचार किया है । तथा ग्रन्थक
अन्तमं (प° १०५) सप्तभंगीके विषयमे एक नया परिशिष्ट जोड़ा है ।
सन्मतितकंके गुजराती विवेचनका अंप्रजौ अनुवाद, गुजराती विवेचनकी
दूसरी आवृत्ति तथा इस हिन्दी अनुवादके प्रकाशन मेने यथाद्क्ति जो संशोधन
किया है उसमें बहुआुत पं० दलसुख मालबणियाका मुख्य रूपसे सहकार मिला
है। भरस्तुत हिन्दी आवृत्तिके समय अधिक माव्रामे संशोधन करना पड़ा है और
उसमें भो विशेषतः वयोवुद्ध पं» मुख्तारजीके अति विस्तृत लेखका ययासंभव
संक्षिप्त किन्तु प्रमाणबद्ध उत्तर देना जरूरी था जो सम्पूर्ति रूपमें दिया गया है!
इस कायंमं पृं ° मालवणियाने लगनसे मुझे सहकार दिया है, उसको में भूल नहीं
सकता । है
User Reviews
No Reviews | Add Yours...