देवी पुराण महाभागवत | Devi Puran Mahabhagawat

Devi Puran Mahabhagawat by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शक्तिपीठाड्ठ 3 + देवीपुराण [ महाभागवत ]--सिहावलोकन * श्९ कह डाक आह; ऋफा ऋ क का ऊ का 5 का ऊ का का कक कक रा का का का कक. का हा का कह का की अर कह जा जा का कक कर का का के कस ऊ का का के के पक का जा का कम भकके अं के ऋ ऊ हू ऋ कर; के ऋ झा फेक; का क का क फ के का के ऋ फ के के ऊ ऊ के क का के क का फ फ के थक के कफ के के के फ फ के कर के कक कक हद का फ ऋक के ऋ कक ऋ ऋ के जा ऊ ऊ के जद के कह कक ऊन चरनूँगी। साथ ही भगवत्तीने यह भी कहां कि जब दक्षके यहाँ उनके देहाभिमानसे मेरा तथा आपका अनादर होगा, तब मैं उन्हे विमोहित कर अपने स्थानको चली जाऊँगी। उस समय आपसे मेरा वियोग हो जायगा और तब आप भी मेरे बिना कहीं ठहर नहीं सकेगे। इस प्रकार हम दोनोके बीच प्रीति बनी रहेगी। यह कहकर परमेश्वरी प्रकृति अन्तर्धान हो गर्यी और भगवान्‌ शिवके मनमे प्रसमता व्याप्त हो गयी। इस प्रकार तीसरा अध्याय पूरा हुआ। 'दक्षप्रजापतिके घरमे भगवतीका सतीरूपमे जन्म 'तथा सती-स्वयवर--कुछ ही दिना बाद दक्षपत्नीने शुभ दिनमें एक कन्याको जन्म दिया। वह कन्या प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती पूर्णा ही थीं। उस समय आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, सैकडों दुन्दुभियाँ बज उठीं, उल्लासका वातावरण बन गया। दसवे दिन उस कन्याका सती नामकरण किया गया। कुछ समय वाद जब सती विवाहयोग्य हुईं तो दक्षप्रजापतिने सतीके पाणिग्रहणकी दृष्टिसे देवताओ तथा असुर्रोंको आमन्त्रित कर एक स्वयवरका आयोजन किया। इस स्वयवरमे भगवान्‌ शिवको आमस्त्रित नहीं किया गया था। देवता, असुर, ऋषि तथा महात्मालोग 'सभाम उपस्थित थे। दक्षप्रजापतिने स्वयवरमं देवीस्वरूपा अपनी कन्या सतीको बुलाया और कहा कि आपका जो भी सुन्दर, गुणवान्‌ और श्रेष्ठ प्रतीत हो, उसे माला पहनाकर 'वरण कर ले। इसी बीच सर्वश्रेष्ठ महेश्वर भी नन्दीपर सवार होकर वहाँ आ गये और अन्तरिक्षमे स्थित हो गये। प्रकृतिस्वरूपिणी देवी भगवती सतीने 'शिवाय नम '-- ऐसा कहकर वह माला भूमिको समर्पित कर दी और वहाँपर प्रकट होकर भगवान्‌ शिवने उस मालाकों अपने सिरपर धारण कर लिया। यह सब देखकर दक्षप्रजापति खित हो गये, परतु ब्रह्माजीके कहनेपर उन्होंने महेश्वरको 'विवाहोत्सव मनाने लगे। कुछ समय बाद ज्ञानी और शिवभक्त नन्दी जो दक्षकी सेवामे थे, वहाँ आये और भगवानू शकरकों भूमिपर दण्डवत्‌ प्रणाम कर उनकी स्तुति करते हुए प्रार्ना करने लगे--भगवन्‌। में आपका नित्य निकट रहनेवाला दास बना रहूँ और निरन्तर आपका दर्शन करता रहूँ। भगवान्‌ शकरने नन्दीकी प्रार्थनाको स्वीकार कर लिया और उन्हें अपने प्रमधथगणोका अधिपति 'बना दिया। 'दक्षद्वारा यज्ञका आयोजन तथा शिवको आहूत न करना--दक्षका भगवान्‌ शकरके प्रति द्वेपभाव बना ही रहा। एक बार उन्होने एक विशाल यज्ञका आयोजन 'किया जिसमें इन्द्र आदि प्रधान देवताओं, ब्रह्मा, देवर्पियों, 'ब्र्मर्पियो, यक्षों, गन्धर्वों, पितरो, दैत्यो, किन्नरों तथा पर्वतोको तो निमन्त्रित किया, कितु विद्वेषके कारण शिव त्तथा उनकी पत्नी सतीको नहीं बुलाया। इस यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान्‌ विष्णुसे प्रार्थथा कर उन्हें भी आवाहित कर लिया। महर्षि दधीचिद्वारा दक्षको शिवमहिमा 'बताना-- 'उस यज्ञमे महामति दधीचि भी उपस्थित थे उन्होंने यज्ञमे 'शिवका भाग न देखकर दक्षप्रजापतिको समझानेका प्रयास 'करते हुए कहा कि शिवविहीन किया गया यज्ञ उसी प्रकार 'फलदायक नहीं होता है, जिस प्रकार अर्थसे रहित वाक्य, 'वेदज्ञानसे शून्य ब्राह्मण तथा गड़ासे रहित देश। जैसे पतिके 'बिना स्त्रीका तथा पुन्नके बिना गृहस्थका जीवन व्यर्थ है, जेसे निर्धन व्यक्तिकी आकाड़क्षा व्यर्थ होती हे, जिस प्रकार 'कुशविहीन सध्या-वन्दन, तिलविहीन तर्पण, हविसे रहित होम निप्फल रहता है, उसी प्रकार शम्भुविहीन यज्ञ भी निप्फल होता है। दधीचिकी इन बातोकों सुनकर दक्ष ओर भी क्ुद्ध हो गये और अपने अनुचरोसे बोले-*इस चुलाकर सती उन्हे सौंप दी। भगवान्‌ शकरने भी प्रसनतापूर्वक ब्राह्मणको यहाँसे दूर ले जाओ।' मुनिश्रेष्ठ दधीचि भी उनकी विधि-विधानसे उनका पाणिग्रहण कर लिया तथा भगवती सतीकों साथमे लेकर महेश कैलासके लिये प्रस्थान कर 'गये। चौथे अध्यायमे यह कथा पूर्ण होती है। 'नन्दीकों भगवानू शिवका वरदान--कैलास पर्वतपर देवता, गन्धर्व, महर्षपिगण देवपत्लियाँ तथा किन्नरियाँ और मुनिपत्रियाँ-सभी पधार गये और नृत्ययान करते हुए सभासे चले गये। देवी सतीका पिताके यज्ञमे जाना--इधर नारदजी भगवान्‌ शकरके पास पधारे तथा उन्हे दक्षप्रजापतिके यज्ञमे जानेके लिये प्रेरित करने लगे। भगवान्‌ शकरने स्वय तथा अपनी प्राणप्रिया सती दोनाके लिये जाना अस्वीकार कर दिया। तब नारदजीने देवी सतीको जानेके' लिये प्रोत्साहित




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