जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग - 4 | Jainendra Siddhant Kosh Part - 4

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरोर होना संसारके दु.स्वॉका मूल कारण है । इसलिए दारोरमें आत्मत्वकों छोड़कर बाद इन्द्रिय विषयॉसि प्रबत्तिको रोकता हुआ आत्मा अन्त- रंगे ब्रबेदा करे 1९) था अनु, १६१४ आदोौ तनोज॑ननमत्र हतेन्दियाणि काउसन्ति तामि बिष- याव बिषयाश्च सानहानिप्रयासभयपापकुपो निंदा स्यु-म्रल ततस्त- मुरवर्थ पर पराणासु ।१६४। <प्रारम्भमें दारीर उसपर होता है, इससे बुह इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयोक्ों चाहती हैं। और बे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिकों देनेबाले हैं । इस प्रकारसे समस्त अनथों की मूल परम्पराका कारण दारीर है 1९६४1 ज्ञा २६१०-११ हारीरमेतदादाय त्वया दु व्व विसहाते । जन्मन्यर्स्मिस्त- तस्तद्वि नि ददोषानथमन्दिसमु ।1१०। भवोद्धबानि दुखानि यानि मानीह देहिभि । सहान्ते तामि तान्युच्चे पुराद।य केबल मू 1११ ०० है झ्ात्मन ' तूने इस संसारमें दारीरको यहण' करके दु ख पाये वा सहे हैं, इसीसे तू निरचय जान कि यह शरीर ही समस्त अनथॉँका घर है, इसके ससरगसे सुखका लेदा भी नहीं मान ।१०। इस जगत में संसारसे उत्पन्न जो-जों दुख जीबॉको सहने पड़ते है वे सब इस शरीरके प्रहणसे ही सहमे पढ़ते हैं, इस दारोरसे निवृत्त होनेपर कोई भी दुख नहीं है 1११: श. झरीर बास्तबमं जपकारी है इ उ./१६ यज्जोवस्योपकाराय तहदेहर्यापकारक । यह देहस्योपकाराय तज्जीबर्यापकारक 1१६। नजो अनशनादि तप जोधबका उपकारक है बहु दारोरका अपकारक है, और जो धन बस्त्र, भोजनादि दारीर का उपकारक है बह जीवका अपकारक है । ९1 खस, धर योगाय कायमसुपालनयतोी इषि युक्स्या, बलेश्यो ममत्व हतमें तब सोधधपि दाबत्या । भिक्षोडन्यथ।ह-सुखजी बिहरन्धल!म/त्‌, तृष्णा सरिद्रिधरयिष्यति संसपोदिस 1१४१1. ० योंग-ररसब्रयात्सक घर्मकी सिंद्धिके लिए सममके पालनमें विरोध न आवे इस ततरहसे रपा करते हुए भी शक्ति और युक्तिके साथ दारीरमें लगे ममत्बकों दूर करमा चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार साधारण भी मदी जरासे भी छिडकों पाकर दुर्भेदा भी पर्वतमें प्रबेशकर जज रित कर देती है उसी प्रकार तुल्छ तृष्णा भो समी चौन तर रूप पर्वतकों छिनन-भिननकर जर्जरित कर हालेगी 1१४१ है, घमर्थीकि किए दारीर उपकारी हे ज्ञा. २/६/१ तैरेब फलमेतस्प गृहीत पृण्यकर्मभि । बिरज्य जन्मन' स्वार्थे थे दारीर कदथितस्‌ ।£। “इस दारोरके प्राप्त होनेका फल उन्होंने लिया है, जिन्होंने संसारसे बिरक्त हॉकर, इसे अपने कल्याण मार्ग में प्ृरण्पक्मोसि क्षीण किया 171 अन, थ /४/१४० शरीर' धर्म संयुक्त रूतितव्यं प्रयरमत । इत्याप्रभाच- स्त्वग्देहस्त्याज्य एबेति तण्यूल ।१४०।. *'घ्मके साधन दारीरकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए', इस डदिक्ाकों प्रबचनका तुष सम- मकमा चाहिए। 'आस्मसिद्धिके लिए दारोररक्षाका प्रयत्न सर्व थां निरुपयोगी है ।* इस दिश्ाकों प्रवचन का तण्डूल समफकना चाहिए । अन घ /७/४ शरीमाद्य किल घर्ससाधनं, तदस्य यस्पेद्‌ स्थितये5झा- नादिना । तथा यधाक्षाणि बच्चे स्युरुसपथं, न बानुघानन्त्यतुनद्धतृड- बढ़ाव्‌ ।£। >रत्नहूप धर्मका साधन दारीर है अत शयन, भोजनपान आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयतन करना 'बाहिए । किस्तु हस नातकों सदा ल्यमें रखना चाहिए कि भोजनादिकर्में प्रमृत्ति ऐसी और उतनी हो जिससे इन्दियाँ अपने अधीन रहें। ऐसा न हो कि कि गग बासनाके वशवर्ती होकर उस्मार्गको तरफ दौड़ने लगें ।६1 शलाका पुरुष ४. दारीर ग्रहणका प्रयोजन आ अनु. ७० अवश्य नश्बरे रेभिरामु कायादिधियंदि । शाश्बत पद- मायाति मुधायात्तमवै हि ते 5० “इसलिए यदि अवश्य नह होने- बाले इन आयु और दारीरादिकोंके द्वारा तुमे अधिनश्वर पद प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास हो आमां समक|[७ । ७. झरदीर बन्घ बतानेका प्रयोजन प का /ता बू.रि/७३/१० अत्र य एव देहाद्विस्नो5नस्तक्वानादिगुण: शुद्धा्मा भणित' स एवं शुभाशुभसंक्पथिकश्पपरिहारकाते सर्बश्र प्रकारेणो पादेयों भेबती त्यभिप्राय, । यहाँ जो यह दे हसे भिस्न अनन्त ज्ञानादि गु्णोंसे सम्पन्न शुद्धारमा कहा गया है, यह आत्मा ही शुभ म अशुभ सकल्प विकक्पके परिहारके समय सर्वप्रकारसे उपादेय होता है, ऐसा अभिप्राय है । द्, से (टी /१०/२०/७ इदमत्र तात्पर्यम-वेहममत्वनिमिसम देह गृहीरबा ससारे परिश्रसति तेन कारणेन देहादिममत्य रयकरबा निर्मोहमिज- झुद्धात्मनि भावना कतव्येति। >तारपर्य यह है-जीब देहके साथ ममत्वके निमित्तसे देहक। फहणकर ससरमें भ्रमण करता है, इसलिए देह आदिके ममस्वको छोड़कर निर्मोह अपने शुद्धात्मामें भावना करनी चाहिए 1 हारोर पर्याप्ि--वं पर्याप्ि। दरीर पर्यौाप्ि काल--द काल/१। शरोर मद--दे मद । हारोर मिध काल--दे, काल/१। शकराप्रभा--+, स सि /३/१/२०१/८ दार्क राप्रभासहचरिता श्र मिः हार्कराप्रभा। एसा सज्ञा अनेनोपायिन व्युर्पादन्ते । “जिसकी प्रभा झरकराके समन है बह काकराप्रभा है। इस प्रकार नामके अमु- सार ब्पूस्पति कर लेनी बाहिए। ( हि, प (२९१), (रा बा, डिश र९१५), (ज प॥/११/१९१) 1२, शरकरप्रभा पूथिवोका लॉक में अवस्थान | दे नरक/४/१९,३ दार्कराप्रभा पृथिबीका नकदा । दे. लोक/ २५ । दाक रावती--भरत सेवस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे मसुष्य/४ । शलाका--जो बिवशपित भाग करनेके अर्थ कलह प्रमाण ककपना कौजिये ताका नाम यही शलाका जानना । बिक्षेष- दे गणित/1/२ दलाका पुद्ष---तोथकर चक्रचर्ती आदि प्रसिद्ध पुरुषोंको दालाका पुरुष कहते हैं । प्रत्येक कश्पकालमें ६३ होते हैं। २४ तीर्थ कर, १२ 'चक्रबती, £ बलबेव, £ नारायण, £ प्रतिनारायण । अथवा £ नारद, हर रुद २४ कामदेव, व १६ कुलकर आदि मिलानेसे १६६ दालाका पुरुष होते है । | पा १ | झलाका पुरुष सामान्य निर्देश १ | ६४ शलाका पुरुष नाम निर्देश । २. | १६९ शलाका पुरुष निर्देदा । ज दालाका पुरुषोकी आयु बन्व योग्य परिणाम । | | । # | कौन पुरुष मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण । “दे, आयु । प्राप्त करें 1 --वे, ज्न्म/ह ।




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