मरुभूमि | Marubhoomi

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Marubhoomi by महेश चन्द्र - Mahesh Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थी, किसु अपनी निराभश्रिता के स्थान पर अपने नारोल के मर्मस्यल पर आघात किए जाने से। विश्वास ने निर्दयता के साथ सब-कुछ पह्थर के शब्दों में लिखा था, जिनसे मर्माइत ओर त्रस्त होकर सुप्तति ने अपने दुर्भाग्य पर आँसू तो बहाए. ही थे, साथ ही निराशा के अतल गर्त में ड्तबती- उतराती हुई छेँच-नीच भी सोच गई थी। उसके सारे कटाक्ष बिप-मरें बाणों से भी अधिक सांघातिक थे, और सब के अन्त में लक्ष्य था हप की ओर । वही हप जिसने अपना स्वस्व उसे अपण कर दिया था और जो आज भी मानसिक श्रशान्ति के साथ-साथ अपना कतव्य भी निभा रहा है । सुमति एक बार फिर उस सबको पढ़ लेना चाहती है। कितने निदय हाथों और क्र हृदय से वह पत्र लिखा गया होगा, इसकी कल्पना उसे सहज ही हो आई | वह उठकर गई और मेज़ की दराज़ से पन्न निकाल लाई | पहले जब उसने उसे पढ़ा था और जिसे पढ़कर वह भावातिरेक से अशान्त हो उठी थी, उस समय उसकी लड़की बिनी जाग रही थी और जिसने उसे रोता पाकर स्वयं भी रोना प्रारम्भ कर दिया था | विश्वास से डसकी बिनी ही श्रकेल्ली जीवित सन्तान थी | उसे सुमति बढ़ी कठिनाई से अपने को प्रकृतिस्थ करने के बाद सँभाल सकी और मय दिखाकर कहीं सुला सकी | अत्र वह अकेली हैं | बिनी न तो उसके आँसू ही देख सकती है और म॑ उसके विघारों के उतार-चढ़ाव से मुख पर बनती-बिंगड़ती व्यथा की लकीरें । आर पत्र इस प्रकार था---समुमति, एक अरसे से में तुम्हें एक लम्बा पत्र लिखना चाहता था, पर न जाने क्‍यों रुक जाता रहा ! कुछ फुरसत भी कम ही मिल पाती है | तुम्हें शायद पता होगा मेंने एक होटल खोल लिया है | उत्तका मालिक-मैनेजर सब मैं ही हूँ । अच्छा चल रहा है और न भी चलता तो भी छुकके कम्-से-कप्त रहने को ठिकाना तो चाहिए ही । अकेले के लिए वहाँ काफ़ी जगह रहती है । परिवार का बन्धन तुमने जोडना शायद चाहा ही नहीं | क्यों, अपने हृदय पर हाथ रखकर देखना और अपनी आत्मा के साथ विश्वासधात मत करना | में कहीं पर मी तुम्हारे भीतर




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