आत्ममीमांसा | Aatmamimansa

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Aatmamimansa by दलसुख मालवणीय - Dalsukh Malvneeya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११ ) यह काम कर सकता है। अतः शक्ति आत्मा की नहीं अपितु शरीर की है ओर शरीर के नाश के साथ ही उसका नाश द्दो जाता है। पायासी राजा की भिन्न भिन्न परीक्षाओं एच युक्तियों से ज्ञात होता है कि वह आत्मा को भूतों के समान ही इन्द्रियों का विषय मानकर आत्मा सवधी शोध में लीन था; और आत्मा को एक भोतिक तत्त्व मानकर द्वी उसने तद्विपयक खोज जारी रखी। इसी लिए उसे निराशा का मुख देखना पडा । यदि वह आत्मा को एक अमूत्त तत्त्व मानकर उसे हूढने का अयल्न करता तो उसकी शोध की अक्रिया ओर ही होती। रायपसेणहय के वर्णन ॐ अनुसार पए्सी का ढाढ भी उसी की भॉति नास्तिक था। इससे बात होता है कि आत्मा को भोतिक समझ कर उसके विपय मे विचार करने बले व्यक्ति श्रति प्राचीन काल में भी थे! इस वात का समर्थन पूर्ोक्तं पैचिरीय उपनिषद्‌ से भी होता है । वहां आत्मा को अन्नमय” कहा गया है। इसके अतिरिक्त उपनिषद्‌ से भी प्राचीन ऐतरेय आरण्यक मे आत्मा के विकास के प्रदर्शक जो सोपान दिखाये गये हूँ, उससे भी यह वात प्रमाणित होती है कि आत्मविचारणा से आत्मा को भोतिक मानना उसका भ्रथम सोपान है! उस आरण्यक में वनस्पति, पशु एवं मनुष्य के चैतन्य के पारस्परिक संबंध का विश्लेपण किया गया है. ओर यह बताया गया है कि ओषधि--वनस्पति ओर ये जो समस्त पशु एव मनुष्य है, उनमे आत्मा उत्तरोत्तर विकसित द्ोता है। कारण यह है. कि औपधि ओर वनस्पति में तो वह केवल रस रूप में ही $ तैत्तिरीय २०१२ २ एतरेय आरण्यक २३२




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