प्रेम - द्वादशी | Prem Dwadshi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
181
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५० प्रेम-द्वादशी
मालूम होती थी। ऐसा प्रतीत होता, मानो ये बातें उनके हृदय से नहीं,
केवल मुख से निकलती हैं। उनके स्नेह और प्यार में हार्दिक भावों की
जगह अलंकार ज्यादा होता था ; किन्तु ओर भी अचम्मे की बात तो यह
थी, कि अब सुझे बाबूजी पर वह पहले की-सी श्रद्धा न रही थी |
अब उनकी सिर की पीड़ा से भेरे हृदय में पीड़ा न होती थी। मुभमें
आत्म-गौरव का आविर्भाव होने लगा था | अब मैं अ्रपना बनाव-श्रद्भार
इसलिए करती थी, कि संगार में यह भी मेरा एक कत्तंव्य है ; इसलिए
नहीं, कि मैं किसी एक पुरुष की वब्रतधारिणी हूँ । अब मुझे भी अपनी
सुन्दरता पर गव॑ होने लगा था। मैं अब किसी दूसरे के लिए नहीं,
अपने लिये जीती थी | त्याग तथा सेवा का भाव भेरे हृदय से लुप्त होने
लगा था |
में अब भी परदा करती थी ; परन्तु हृदय अपनी सुन्दरता की सरा-
हना सुनने के लिए व्याकुल रहता था। एक दिन मिस्टर दास तथा গীহ
भी अनेक सम्यगण बाबूजी के साथ बैठे हुए. थे | मेरे ओर उनके बीच में
केवल एक परदे की आड़ थी | बाबूजी मेरी इस मिमकक से बहुत ही लजित
थे | इसे वह अबनी सम्यता में काला घव्वा समझते थे | कदाचित् वह
दिखाना चाहते थे कि मेरी ज्ली इसलिए परदे में नहीं है, कि वह रूप तथा
वस्राभूषणों में किसी से कम है ; बल्कि इसलिए, कि श्रभी उसे लज्जा
आती है | वह मुझे किसी बहाने से बारम्वार परदे के निकट बुलाते,
जिसमें उनके मित्र मेरी सुन्दरता ओर वस्त्राभूषण देख लें | चरन्तम
कुछ दिन बाद मेरी मकिकक गायब हो गई। इलाहाबाद आने के पूरे
दो वर्ष बाद मैं बाबूजी के साथ बिना परदे के सैर करने लगी । सैर के
बाद टेनिस की नौवत आई श्रन्त को मैंने क्लब में जाकर दम लिया |
पहले यह टेनिस और क्लब मुझे तमाशा-सा मालूम होता था, मानो वे
लोग व्यायाम के लिए नहीं ; बल्कि फेशन के लिए टेनिस खेलने आते थे ।
वे कभी न भूलते थे, कि हम टेनिस खेल रहे हैं | उनके प्रत्येक काम में,
सुकन मे, दौड़ने में, उथकने में एक कत्रिमता होती थी, जिससे यह प्रतीत
होता था कि इस खेल का प्रयोजन कसरत नी, केवल दिखावा है।
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