अष्टछाप और वल्लभ-सम्प्रदाय | Ashtchaap Aur Vallabh Sampraday

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Book Image : अष्टछाप और वल्लभ-सम्प्रदाय  - Ashtchaap Aur Vallabh Sampraday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३९६ अश्छाप॑ आचायों द्वारा लिखित ग्रन्थों के देखने से पता चलता है कि वास्तव में पुष्टिमागं के सिद्धांन्तों में विषय-सुख के पोषण का कहीं भी अ्रादेश नहीं दिया गया | श्राचार्य जी ने तो कई स्थलों पर अपने ग्रन्थों में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सांसारिक विषयों में मनुष्य को कभी आसक्त नहीं-होना चाहिए 1 सेंस्यास-निर्णय' अन्य में उन्होंने कहा है.--जिनका मन विषयों से श्राक्रान्त है उनमें प्रसु-पेर्णा का श्रवेश कमी नदीं होता १ उनके 'बविवेकधर्याभ्रय ग्रन्थ से भी यही भाव ईैः--न्दियों के . विषयो को शरीर, वाणी तथा मन से त्याग दे । इन्द्रिय-दमन में असमर्थ पुरुष को भी इन्द्रिय-दमन करना चाहिए।” भगवद-मेम-ग्राप्त के लिए उन्होंने सबसे बढ़ा बन्धान सांसारिक विषयों का त्याग करना कहा दै। “श्री सुबोधिनी-टौका' में वे कहते हैं,--“'जब तक कामादिक दोष नष्ट नहीं होते तब तक भक्ति उततर नदीं होती ।** श्री वस्लभाचायं जी के बाद श्री विटुलनाथ जी ने भी सांसारिक विषयों मे अनासक्ति श्रौर श्रन्त में उनके त्याग का ही अपने मन्थो मे उपदेश दिया था। श्न आचायों के कथनों के अतिरिक्त इस सम्प्रदाय के भाषा में लिखनेबाले सूरदास, परमानन्द- दास, नन्‍्ददास आदि बड़े-बड़े भक्त कवियों ने भी संसार की अ्सारता दिखाते हुये लौकिक विषयों से श्रलग रहने का ही प्रबोधन दिया है श्रौर भगवत्‌-कृपा को ही साधन बताया है । उनके आत्म-दशा-दर्शन तथा अ्रविद्या-माया से छूटने की कामना से युक्त पदों में संसार के विषयों को छोड़ने का ही भाव ই।* १---विषयाक्रान्तदेहानां नावेशः सवंथा हरे : । “संन्‍्यास-निरणेय, षोडश अन्थ, भट्ट रमानाथ शर्मा, श्लोक ६, ও ধৎ | २--स्वयमिन्द्रिय कार्योणि कायवाडइमनसा श्यजेत्‌। श्रशूरेणाऽपि कतव्यं स्वस्यासासथ्यभावनात्‌ ।८| --विवेक-घैर्याश्रथ, षोडश ग्रन्थ, भट्ट रमानाथ शर्मा, प० ६२ । ३--कामादिनां शि{ल्षत्वे भक्तिर्नोत्पस्यते । --श्री सुबोधिनी-टीका, श्री बल्चभाचार्य भी । हिला मनारे करि माधव, सों प्रीति । काम क्रोध मद लोभ मोह तू छाँडि सबै विपरीति । * ““सूरसागर, यें० प्रे०, प० ३१ | जो लों मन कामना न छूटे । तौलों कद्दा योग यज्ञ ब्रत कीने बिन कन तुस को कूटे । . काम क्रोध मद लोभ शत्रु हैं जो इतनो सुनि छूटे , सूरदास तब ही तम नाशे, ज्ञान अग्नि भर फूटै। ¦ 3) “खरसागर, बें० प्रे०, पृ० ३७ ।




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