आर्य मित्र का रष्ष्ह्यद्क १९१६ | Aarya Mitra Kaa Rxshhyadk 1916

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शाय्येसित्र का श्ररब्यक्ू + . १७ कवच बनवा दानव बाबा. नर कार बक-बठा बडा बरु-बड़ बराबर बला चलड-रकड बरदऊ ब्ठनबऊ बनवा दंत ब़-ब बऊ-ब़ बराबर ब़-बठ बनबक चहदक बड़-चऊ बऊ-चरर बनवा बऱ-द ४ श६ शवनी पर भ्याय्येससाज कर्पलरू फलें । शुभ सिद्ध सनोरथ रूप धार फल कले ॥ सुल घातक तक्षक क्र कभाय न भले । शाटके घर कोप झुठार विरोध वसूले ॥ इन सुरों का का घोर घमरुड घटाते । यदि दयानन्द्‌ युरूदूव उदार न श्याते ॥ सह्थि दयानन्द चपेर शान्तियुग ह भ्रीयुत मास्टर आत्मादाम जी ऐज्यूफेश्नल इन्सपेक्टर आाष ग्रन्थों में तीन वार शान्ति उच्चारण करने की प्रथा किसी झुभकास वा शभलेख की समासिपर दखने में आातो हे । जमसेन देश का विद्यानिधि शोपनह्ार लिखता है कि इस से बढ़कर उत्तस प्रा थेना कि हस सभा समाज के खिसजेन समय पर शान्तिपाठ करें कही द्रछि नहीं पढ़ती । सोलह संस्कार हों वा विशेष हवलयसू पदह्चिले शान्ति- पाठ करना हो होगा । यूरुप का जीवन चरित्र द्शों रहा है कि दहां झून खातों को जीवन सें लाना व्ठिन है । आजकल भारतवर्ष सें अंग्रेजी लिखे पढ़े ९०० में ९४ एरूख तो सचे सन से सहोद्य डारलिन के सत के भक्त खन रहे हैं और कह रहे हैं कि शान्ति यग हे भाव कवियों के मनोद्भप्द नहीं तो क्या हैं ? ऐसी खिकट शताठ्दी में ऋषि द्यानन्द ने भारत में कास किया-यक्तित तथा प्रमाण से उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि शान्तियग लाना असंभव नहीं यदि सनष्य सचें ास्तिक होजावें । इसी उद्ृश्य अथॉत शान्तियग लाने के दूढ़॒ विचार उन्होंने इस शयोग्य शक्तिहीन शभसंस्कार शल्य सनब्यों को जो वेद्विद्या तथा संस्कृत विद्या से रहित थे वा किसी अंश तक ही जानते थ समाज में संगठन किया । गुरूद्तत से मेधावी पशणिडस जिज्ञाखु ने




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