नाश का विनाश | Nash Ka Vinash

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मामा वरेरकर - Mama Varerakar

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रामचंद्र रघुनाथ - Ramchandra Raghunath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मत्पय प्रसृतो सन्‍्सयथ दशन मन्मय एश मरमय पठ प्रयम शरक दृश्य एक १५ किये बिता वह चेन नहीं लेती । महाराज की इच्छा है कि वह हिमालय न जाय । जो उनकी इच्छा है, वही मेरी भी है । पर हम दोनो की सुनता कौन है ” अच्छा, मानलो हमने उससे कहा भी कि हिमालय मत जा, तो कौन वह हमारी নান मान लेगी ? जैसे-तैसे मैंने महाराज को राजी किया, तव कही वह शान्त हुई । प्रजापतिजी ऐसे भिखसगो को इतना महत्त्व आखिर क्यों दे रहे हैं, मैं कुछ समझ नही पाता । सती इतनी पगली नही कि उस प्राचीन भिखारी को देखकर उसपर मोहित हो जाय । छि -छि , प्रश्न मोहित होने का नही हे । डर यह लगता है कि वहा वह पगला या उसके अनुचर सत्ती का अपमान न कर दें । करने दीजिए उन्हे अपमान ' हम भी देख लेगे । इसके लिए उन्हें उचित दण्ड देने को प्रजापति के अनुचरो मे भी भरपूर शक्ति है । महारानीजी, आप कोई चिता न কই | इस मन्मथं के साथ होने पर किसी भी पुरुष से सती को भय नही । (दक्ष आता है ।) ह मन्मथ सती श्रौर भय, ये दो शब्द एक साथ लाना कायरता का लक्षण हैँ । मती श्रतुल प्रतापशाली दक्ष की कन्या है । उसे भयप्रद लगनेवाला व्यक्ति इस विभुवन में कोई नही । मे धी यही कहता ह । हर व्यक्ति व्यर्थ ही शकर के भय का इतना ढिढोरा पीठ रहा है कि मुझे ऐसा लगने लगा हे, कि कही में भी उससे सचमुच न डरने लग । तुम्हे ऐसा लगेगा ही । तुम में पौरुष की प्रवलता नही है या स्व्रीत्व का आधिक्य है, यही ठीक से समझ में नही आता । यह कहने से क्रि दोनों वरावर है, काम चल जायगा। पर देव, शकर क्या सचमुच इतना भयप्रद प्राणी है ? जिसे भय का भय नहीं, उसे शकर से भय क्यो होगा ? कम-मे- কম मैं तो शकर से जरा भी नही डरता । हिमालय के उच्चतम शिखर पर रहनेवाले उस मनुष्य रूपी गिद्ध को देखकर, वहत




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