सूर्योदय का देश | Suryodaya Ka Desh

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Suryodaya Ka Desh by जीवनजी देसाई - Jeevanji Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्‌ जापान बुलाता है मैं की वर्पोसि कहता आया हूं कि मेरी दुनियाके सारे देश देखनेकी जिच्छा है; लेकिन जापान व अमरीका देखनेकी खास मिच्छा नहीं होती । कोओ देवा जितना बघिक पिछड़ा हुआ, अविकसित अयवा थुपेक्षित हो बुसकी ओर मेरा बुतना ही अधिक आकर्षण होता है। अुसके विपयमें मै वहुत-कुछ ' जानना चाहता हूं । जुनके पास अपनी विशिष्ट प्रकृति तो होती है । लेकिन जापान और अमरीकाके विपयमें कुछ अैसा खयाल वन गया था कि ये दोनों देग मुदारी पूजी पर ही आगे बढ़े है। मिनके पास अपना मौलिक या गभीर कुछ नहीं हूँ। जो कुछ भी है, लिया हुआ है, पैदा किया हुआ नहीं है। जिसलिअे जिन देखोंके लोग छिछढे नीर अभिमानी होने चाहियें। लुनकी सस्कृति अथवा सम्पन्नता टिकते-टिकते भी कहा तक टिंकेगी ? घासकी ज्वाला भड्क! कर जलती है, किन्तु अल्पजीवी होती है। दूसरी ओर, लकडिया भर घीरे जलती है पर वे सारी रात जल सकती हैं «. . जित्यादि। पर अव मैँ देखता हू कि जिस विचारमें अुतावलापन था, दीर्घ दृष्टि नहीं थी। मुधार पूंजी लेनेवाले भी ययासमय मौलिकताका विकास कर सकते हैं और विधिष्ट्ता प्रगद कर सकते हैं। खानदानियत तो अनुभव और समयकी भुपज है। मुरब्या जिस दिन बनता है भुस दिन कच्चा ही होता है। श्रद्धा और धीरज रखनेसे ही यह तैयार होता है। मवु-मक्खियोंकि दाहदके वारेमें भी मैसा ही है। मुझे अपने-आप तो जापान जानेका थायद ही सुझता। कहते हूँ कि जापानके गुरुजी निचिदात्पु फूजीमी जव गाधीजीसे मिलने सेवा- ग्राम जा रहे थे तव मुन्ने ट्रेनमें मिले थे । स्वाभाविक्र जिज्ञासाने मैंने भुनके साथियोंसे कओी सवाल पूछे होगे। पर मैं तो यह सब भूल गया था। नुसके वाद जुनके दिप्य अंकके चाद जेक तेवाग्राम आाधममें भाकर रहने लगें । चमड़ेका पखा वजाकर ' नम्‌ न्यो हो रेगें क्यो” की प्रार्यना




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