रासपंचाध्यायी | Raspanchadhyayi Bhramar Geet

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Raspanchadhyayi Bhramar Geet by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्१ गया, वरन्‌ प्रकृति को रस-सिंद्धान्तानुसार उद्दीपन विंभाव के रूप में ही लिया गया है, किन्ठ इस कथन में पूरी तव्यता नहीं । प्रकृति के साथ मनुष्य का संम्यन्ध श्रनिवायं दे, श्र देखिये वह सम्बन्ध दो कितने प्रकार से सकता दै। कवि या कोई भी व्यक्ति प्रकृति को केवल उसी रूप में देख सकता हे जिस रूप में वद्द स्वयमेव है । अथवा द्रपनी मानसिक श्रवस्थु के दो श्ाधार पर सब को प्रकृति दोखती है; प्रकृति की सत्ता त्रौर महत्ता मानव मन तक ही है, बिना उसके प्रकृति की सत्ता में संदेह है । संसार तभी तक है जब तक उसे देखने वाला है, साथ दी वद्द वेसा ही है जैसा उसे देखा जाता दै। इस श्रकार मनोवैज्ञानिक श्रौर दाशंनिक रूप में प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण हो हीं. क्या सकता है; उसकी सत्ता दौर महत्ता सापेक्ष है । भक्ति-काव्य में प्रकृति का चित्रण भी दो सुख्य विचारों या सिद्धान्त के ्राधार पर किया गया है । प्रथम त्ाध्यात्मिक या दार्शनिक विचार. से और दूसरे श्रीपासनिक विचार से । दाशेनिक विचार से प्रकृति दी माया है; वद्द जढ़-चेतन या विद्या- विद्या-रूप दै । इंश्वर मायापति है, किन्तु है वस्तुतः माया से परे । माया तदिच्छानुवर्तिनी नर्तकी ऑ्रर दासी सी हैं। भगवान को सदा प्रसन्न करने श्रीर सुख पहुँचाने की वदद चेप्टा करती हुई कार्य करती है । इस विचार के साथ दी भक्ति-काव्य में प्रकृति को उद्दीपन के रूप में रक्खा, गया है | किन्तु विचार-पूर्वक देखने से ज्ञात होता है कि ईश्वर-लीला. के प्रसंग में प्रकृति सर्वथा बदल जाती है। वह भी दिव्यता के साथ प्रगट होती है । उसका कार्य-कलाप भी साधारण नियमानुसार न रह कर विचित्र रूप में दोने लगता है, हो मूलभूत नियम शवश्यमेव बने रहते श्र द्पना श्ाभास देते रहते हैं । प्रकृति की शक्तियाँ भी विशेष रूप में व्यवहार करती हैं यदद सब ईश्वरेच्छा को देखते ही हुए होता है । इसी आधार पर प्रकृति-क्रिया को देखकर ईश्वरेच्छा से उत्पल दोने वाली- ग्निम घटनादि का ज्ञान किया जाता है ।




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