योगदर्शन | Yogdarshan
श्रेणी : योग / Yoga
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.15 MB
कुल पष्ठ :
340
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्ण्
ग्रतिपादन सात्र करती हैं। सिद्धान्त-प्रत्तिपादक गम्थ में जो कुछ कहा जाता है उसका
रूप होता है “यह वात ऐसी ही है, अन्यथा नहीं हो सबती” और उसकी कली इसीलिए
प्रदचनात्मक होती है। परन्तु व्यावहार्कि विपय की थिक्षा देनेवाऊँ ग्रन्व का रूप
होता है “इस काम को ऐसे करना होता है अन्यया सफलता चहं मिलेगी” भर उसकी
चली होती है। व्यावहारिक विपयों को सिखाने वाला अपने पाठक से इस
प्रकार वात करता है जिस प्रकार कि गुरु शिप्य को पढ़ाता है। गुरु मौर शिप्य को ननेहे
की सूक्ष्म डोर सदा मिछाये रखती है, जैसा कवीर ने कहा है :
जो गुरु होहि् वनारसा; दिप्य समुन्दर तीर ।
आठ पहुर लागी रहे, जो गुन होहि शरोर ॥
गुरु और शिष्य दोनों में ही गुण होना चाहिए, तभी यह भाठ पहर वाली वात
चरितार्थ हो सकती है।
योगदर्यन में कहीं भी इस प्रकार का निकट सम्बन्ध नहीं देख पड़ता । सच तो
यह है कि योग के अभ्यासों को गुरु की मो कोई आवद्यकता पड़ती है, यह वात मी स्पप्ट
रूप से नहीं कही गयी है। न इस वात का कोई संकेत है कि गुर किसी प्रकार शिप्य की
सहायता करता है भर न यह बतलाया गया है कि दिप्य को गुरु के साथ कंसे व्यवहार
करना चाहिए। श्रुति कहती है:
यस्य देवे तथा युरी।
तस्पेत्ते कथिता झार्था:, प्रकादान्ते महात्मनः ॥1
इस दलोक में कहा गया है कि गुरु के प्रति वैसी ही मक्ति होनी चाहिए जैसे
देव के प्रति । परन्तु योगदशन इस सम्बन्ध में बिल्कुल चूप है और पतंजलि के मुख्य
टीकाकारों ने भी इस सम्वन्व में कुछ कहने की आावद्यकतता नहीं समझी ।
'यह प्राचीन परिपाठी है कि भारम्म में ही अधिकारी का संकीतेंन हो जाय, अर्थात्
यह चतला दिया जाय कि पुस्तक किस प्रकार के मनुष्य के लिए लिखी गयी है। दर्दान
ग्रन्थों में यदि ऐसे स्पप्ट दाव्दों में नहीं वतलाया रहता तो भाप्यकार इस कमी की पुर्ति
कर देता हूँ। वेदान्तदर्शन के सम्बन्व में ऐसा ही हुआ है। प्रथम सून “अथातों ब्रह्म
जिज्ञासा” के प्रथम दोनों दाव्दों 'अथ' और “अतः का अर्थ बताते हुए ने
अधिकारी के सम्बन्व में सारी आवदयक यवारतें कह दी हैं । योगदर्दन में न तो पतंजलि
चने कुछ कहा; न उनके भाप्यकार और वृत्तिकार ने । यह जानना वहुत आवइ्यक था कि
किस व्यक्ति को योग का उपदेश देना चाहिए, किसको श्रस्तुत ग्रन्थ पढ़ाना चाहिए; इसे
न वत्तलाने का ही यह परिणाम हुआ है कि संस्कृत का थोड़ा सा व्याकरण जानने बाला
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