हिंदी गद्य का विकास | Hindi Gaddh Ka Vikas

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Hindi Gaddh Ka Vikas by डॉ मोहनलाल जिज्ञासु - Dr. Mohanlal Jigyasu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र कक कै जिसके परिणाम-स्वरूप गद्य की प्रभु को एक भारी घक्का लगा । यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि वेदिक सस्क्त-काल के समय से ही प्रात जन-साधारण की भाषा थी । -चेदिक भाषाओं के मध्यकाल में भाषाओं का पर्याप्त चिकास हुआ । भरत सनि ने कुल सात प्रकार की श्राकृतों का उल्लेख किया है--मागधी, आवन्ती , प्राची, शौरसेनी, अद्धमागधी, बाल्हीका और दाक्षिणात्या । ग्राकृत्त, शौर सेनी, सागधी और पेशाची श्राकृत-साहित्य की सर्वाधिक प्राचीन भाषायें हैं । जिस भाषा सें इन सभी का मेल है, उसे *प ली” कहते हैं। अतः इसके द्वारा अशोक के शिलालेखों, की हीनयान शाखा के म्रंथ चिपिटक, महावंश जातकों आदि, प्राचीन सन सूत्रों और प्राचीन नाटकों की रचना हुईं है । इस प्रकार प्राचीन प्राकृत भी पाली दई, जिसका कि प्रयोग साधारण लोग संस्कृत-काल में करते थे । भगवान्‌ बुद्ध ने अपने उपदेशों का अचार इसी भाषा के द्वारा किया है । जनता के कानों तक अपने उपदेशों को पहुँचाने के लिये संस्कृत की आश्रय छोड़कर पाली को अपनाने का मुख्य कारण यही था, कि जनता उनके उपदेशों को अच्छी तरह समझ सके । पाली में हमें झनेक गध-रचनायें देखने को मिलती हैं, जिनमें ब्रिपिटिकों का पाली गद्य तो बढ़ा ही सरल और सुबोध ऐ । पाली-गद्य के दो रूप हैं । प्रथस, चह जो जातकों में पाया जाता हे । यह सीघा-सादा है अर कथा-चर्णन के लिए सर्वथा उपयुक्त है । द्वितीय, वह प्रौड़ रद्य है, जो शास्त्रीय अंधों में देखा जा सकता है । जातकों की भाषा सें बोलचाल के शब्दों और सुहावरों का प्रयोग हुआ है । सरल गद्य और प्रौढ़ गद्य दोनों के प्रथकू- पथक्‌ उदाहरण क्रमशः नी चें दिये जाते हैं:--- (१) “अतीते वाराणसियं त्रह्मदत्ते रज्ज॑ कारेन्ते बोधिसत्तो ससयोनियं निब्बत्तित्वा अरन्जे चसतिं । तस्स पन अरजस्स एक तो पब्बत- पादो, एक तो नदी एक तो पश्चन्तगामकों । अपरे पिस्स तयो... सहाया अहे सु---मक्कदो, सिंगालो उद्दोति ।”




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