सरल जैन रामायणा ( तृतीय कांड ) | Saral Jain Ramnarayan(vol-iii)
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
264
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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प्रुष्ठ नं० शब्दाय या भावार्थं
कारक स्थान रचकर तैयार
किया ।
+ रिपुक्रत दुख =
दिया गया दुख।
>+ शरवनि उदर मह = प्रथ्वी के
नीचे छुपा हुआ |
+ खगप=विद्याधसों का स्वामी ।
) अरिश्रगस्य थल = वैरी की
বাক नहीं, ऐसा स्थान |
» प्रभु प्रसाद् हरि थल दिया =
तोथकर की कृपा से इन्द्र ने
स्थान दिया ।
» पीन वर्ण तह, क्राह्मण লাহীল
विद्याधरों के स्थान में केवल
क्षत्री, वेश्य और शूद्र जाति
ही होती हैं ब्राह्मण नहीं ।
४ पुन कनिछ सन्दर तनुज =
फिर छोटा सुन्द्र नाम का पुत्र
» जंग प्रश्ुताई = जगत में श्र छ-
ताई पावे ।
9) सूर्यंहास श्रि = देवो पुनीत,
सूयहास नामक तलवार |
» भीस सहावन ८ सद्दा भयानक
जङ्गल ।
घैरी द्वारा
দু ল০
)
शब्दाथ या भावाथं
४ विधु वारिधि सम उमग हिय ८
चन्द्रमा के उदोत्त समय सिख
प्रकार समुद्र उसड़ता है तिस
प्रकार हृदय उसग अथोंत्
श्रानन्द को प्राप्त हुआ |
» गिरा उचाइ न््चाणी बोली |
» असि सुभगनूसुन्द्रर तलवार।
» रवि सम = सूयं के समान |
+ विनवत न= नमन करता हुआ।
১ लदा मोद् श्रधिकाय = हृष्य
में अत्यन्त द्वर्प प्राप्त हुआ ।
» असन = भोजन ।
„» विराधन = काटने मे|
६ निरख शीस महि पैपडो =
पृथ्वी पें कटा हुआ शिर देखा।
पत्रं गये वेटोक = विना किसी
वाधा के पिले तूने जीत
लिये ।
+» विपुल्ल == भारी या वहतत ।
७ मन्थन सथन दिये मह दाये =
कामविकार हृदय विपे उमद्
पड़ा ।
„ लगी पचन जलनिधि उमगयि
जिस प्रकार पवन की
भकोरों से समुद्र उमड़ता है।
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