सरल जैन रामायणा ( तृतीय कांड ) | Saral Jain Ramnarayan(vol-iii)

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Saral Jain Ramnarayan(vol-iii) by कस्तूरचंद नायक - Kasoorchand Nayak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( प्रुष्ठ नं० शब्दाय या भावार्थं कारक स्थान रचकर तैयार किया । + रिपुक्रत दुख = दिया गया दुख। >+ शरवनि उदर मह = प्रथ्वी के नीचे छुपा हुआ | + खगप=विद्याधसों का स्वामी । ) अरिश्रगस्य थल = वैरी की বাক नहीं, ऐसा स्थान | » प्रभु प्रसाद्‌ हरि थल दिया = तोथकर की कृपा से इन्द्र ने स्थान दिया । » पीन वर्ण तह, क्राह्मण লাহীল विद्याधरों के स्थान में केवल क्षत्री, वेश्य और शूद्र जाति ही होती हैं ब्राह्मण नहीं । ४ पुन कनिछ सन्दर तनुज = फिर छोटा सुन्द्र नाम का पुत्र » जंग प्रश्ुताई = जगत में श्र छ- ताई पावे । 9) सूर्यंहास श्रि = देवो पुनीत, सूयहास नामक तलवार | » भीस सहावन ८ सद्दा भयानक जङ्गल । घैरी द्वारा দু ল০ ) शब्दाथ या भावाथं ४ विधु वारिधि सम उमग हिय ८ चन्द्रमा के उदोत्त समय सिख प्रकार समुद्र उसड़ता है तिस प्रकार हृदय उसग अथोंत्‌ श्रानन्द को प्राप्त हुआ | » गिरा उचाइ न्‍्चाणी बोली | » असि सुभगनूसुन्द्रर तलवार। » रवि सम = सूयं के समान | + विनवत न= नमन करता हुआ। ১ लदा मोद्‌ श्रधिकाय = हृष्य में अत्यन्त द्वर्प प्राप्त हुआ । » असन = भोजन । „» विराधन = काटने मे| ६ निरख शीस महि पैपडो = पृथ्वी पें कटा हुआ शिर देखा। पत्रं गये वेटोक = विना किसी वाधा के पिले तूने जीत लिये । +» विपुल्ल == भारी या वहतत । ७ मन्थन सथन दिये मह दाये = कामविकार हृदय विपे उमद्‌ पड़ा । „ लगी पचन जलनिधि उमगयि जिस प्रकार पवन की भकोरों से समुद्र उमड़ता है। ५७ ৯৬




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