श्रीमद्भगवद्गीता | Srimadbhagvadgita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ॐ श्रीहरिः % ৬০ शा যা + तत्सद्‌व्रह्मण सदः হাক্ষহলাত্স क हिन्दाभाषानुवाद्साहेत ध ( उपोद्घात ) ३० नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसंमवम्‌ । अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च॒ मेदिनी || व्यक्तसे अर्थात्‌ मायाते श्रीनारायण--आदिपुरुष सर्वभधा अतीत ( अस्पृष्ट ) हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अव्यक्त--प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है, ये मूः, भुवः आदि सब्र छोक और सात द्वीपोंवाली पृथिवी ` ब्रह्माण्डके अन्तगंत हैं । हे भगवान्‌ घुष इद जगत्‌ तस्थ च इस जगंतको रचकर इसे पाटन करनेकी धिति चिकीषुः सरीच्यादीच्‌ अग्रे सृष्टा | इच्छावाठे उस्न भगवानने पहले मरीचि आदि | प्रजापतीन्‌ प्रवात्तलुक्षण धर्म ग्राहयामास प्रजापति्योको रचकर उनको वेदोक्त प्रंबृत्तिरूप ১ वेदोक्तम । वर्म ( कमंयोग ) ग्रहण करवाया । ततः अन्यान्‌ च सनकसनन्दनादीन्‌ फिर उनसे अरग सनक, सनन्दनादि ऋष्रियोको उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानवैराग्यलक्षणं | उत्पन्न करके उनको ज्ञान और बैराग्य जिसके लक्षण हैं ग्राहयामास | | ऐसा निशद्ृत्तिरूप धम्म ( ज्ञानयोग ) ग्रहण करवाया । द्विविधो हि वेदोक्तो धमः, प्रवृत्तिलक्षणो | वेदोक्त धर्म दो प्रकारका है--एक प्रवृत्तिरूप, निधर्तिटक्षणः च । ` दूसरा निवृत्तिरूप । | । जगतः ` धितिकारणं प्राणिना साक्षात्‌ | जो जगत्की सितिका कारण ता प्राणिर्यो- अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्मणाचैः की उन्नतिका और मोक्षका साक्षात्‌ हेठदहैषए्व ক বি ২ ৩ _ | कल्याणकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रम-अबढम्बियोंद्ारा . बाण = आज्रासमिः च ` अरयाजयाभः | जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम ` अनुष्ठीयमानः) : रे | धर्म है। .




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