चंद्रगुप्त विक्रमादित्य | Chandragupt Vikramaditya

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Chandragupt Vikramaditya by गंगाप्रसाद मेहता : Gangaprasad : Mehata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका गुप्तन्बंश के अभ्युदय-काल को प्राचीन भारतवष के इतिहास का 'सुवरण-युग” मानना सर्वथा संगत है। इस युग में हमारा देश विदेशीय जातियों की चिरकालीन पराधीनता से स्वाधीन हुआ । उस में “आसमुद्र” हिंदू-साम्राज्य को स्थापना हुई और उस को प्राचीन आये-संस्क्ृति के अंग- प्रत्यंग में फिर से नये जीवन का संचार हुआ । अपने ही शरूद्वारा रक्षित राष्ट्र में 'शास््र-चिन्ता? प्रवृत्त हुई--विद्या, कला ओर विज्ञान के विविध विकास अर विलास की अविरल धारा प्रवाहित हुईं । भारत के प्राक्तन ध्धमं का प्राचीर बाँधा गया--उस की मर्यादा स्थापित की गई । आये-धम के उत्थान के साथ साथ भारत के प्राचीन संस्क्रत वाड्मय की भी इस थुग में अपूब श्रीवृद्धि हुईं। उस में अनेक काव्य, नाटक, शाम््र ओर दर्शन रचे गए। उस युग की उत्सपिंणी क्षमता, आशा ओर महत्वा- कांक्षा के, उस की उन्मेषशालिनी प्रतिभा के, प्रकट करनेवाले कविता- कामिनी-कांत कविवर कालिदास की कमनीय कृतियों की स्वृष्टि गुप्त- सम्राटों की छत्र-छाया में हुईं। वह महाकवि अपने देश-काल की भव्य घटनाओं का चतुर चित्रकार था। उस की प्रखर प्रज्ञा, पूवं कल्पना- शक्ति, अलोकिक वाग्विभव, गंभीर पांडित्य में उस के ही समकालीन ओजस्वी युग का जीवन, जाग्रूति, स्फूर्ति और चैतन्य स्पष्ट भलकता है । वास्तव में वह इ० स० के पाँचवें शतक के 'प्रब॒ुद्ध भारत” का परमाराध्य प्रतिनिधि ओर विदग्ध वक्ता था। उस की अजर, अमर कृतियों मे हमें गुप्त-युग की गोरव-गरिमा का म्रत्यक्ञ निदशेन मिलता है । कालिदास के समय का “সন্তু भारतः कैसे जगा मौर किसने जगाया ? क्या वह्‌ किसी वाह्य अथवा दैवी शक्ति से प्रेरित किया गया, अथवा अपने ही किन्हीं सुपुत्रों के पोरुष और पराक्रम के बल पर उठ खड़ा हुआ ? इतिहास के इन जटिल प्रश्नों का करना तो सरल है किंतु




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