हिंदी नाटककार | Hindi Natakkar

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Hindi Natakkar by जयनाथ नलिन - Jaynath Nalin

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आलोक १३ गण्‌ नृ्यो से होता है । डायोनिस का उत्सव शोत को श्ष्यु रौर बसन्ता- रम्भ के उपलक्ष में मनाया जाता था। भारत में भी इस प्रकार के नृत्य-गान- प्रधान स्थाँगों ने नाटक के विकास में सहयोग श्रवश्य दिया द्वोगा । मानव ने जंगली असभ्य अवस्था में पशुओं के चेहरे लगाकर नृस्य-गान आरम्भ किए थे। धीरे-धीरे इन पशु्रों ने-विशेष शक्ति के प्रतीक द्वोने के कारण--देवताश्नों का रूप धारण कर लिया। डायोनिसस, नृसिंह, गणेश, बाराद में पशु और मानव दोनों मिल जाते हैं । भारत में प्रचलित नृसिंद्दावतार, बाराह-लीला आदि ने भी नाटक के श्रादि रूप को गति दी द्वोगी । यूनानी दुःखान्‍्त नाटकों का विकास डायोनिसस के गीतों से हुग्रा । यूतान में एस्किलस, सोफोक्ली ज, यूरोपिडीस प्रध्तिद्ध दु:खान्त नाटक-लेखक हुए । ऋतु-पर्वों पर किये गए उत्सवों और स्वॉगों में भी नाटक का श्रादि रूप मित्रता है। चीन, यूनान, भारत, मेक्सिको--सभी देशों मे वसन्त ऋतु में श्रानन्दोरसव मनाए जाते है । यह समय फसलों के पकने का होता है। प्रकृति में भी उल्लास आनन्द उमढ़ता है। चीन में नाटकों का आरम्भ और विकास वसन्तोत्सव के उपलक में किये गए ह्वास्य-प्रधान स्वॉगों से हुआ दै । भारत में भी होली के स्वॉग अपने हास्य भौर अश्लील मनोविनोद के लिए विख्यात हैं। अ्रश्लील स्वाँगों में यूनान में हास्य नाटक उद्प हुए । इनमें राजकीय, पौरा- शिक श्रौर देतिदासिक पुरुषों की खिल्‍ली उड़ाई जाती दै और श्रश्लील अभि- नय रहता दहै । यूनानी नाटक के विकास में जितना कायं इन हास्य-नाटकों ने किया उतना दुःान्‍्त नाटकों (डायोनिस के गीतों) ने नहीं । हास्य-नारकों में अभिनय, चरित्र-चित्रण, कथावस्तु, रस, संवाद श्रादि तस्व दुःःखान्त नाटकों- से अधिक स्वस्थ और नाटकोचित द्वोते थे । इनमें अश्लीलता बहुत रहती थी। प्राकदतिदातिक कालोन लेखक मोदिस, सछुपन, टॉलिनस ने इनकी अश्लीलता कम की । मिनेण्डर ने तो यूनानी नाव्य-कला में युगान्‍्तर उप- स्थित कर दिया। उसने अभिनय को स्वाभाविकता की श्रोर बढ़ाया-वह नाटक को वास्तविक जीवनके निकट लाया। घार्मिक उत्सवों, ऋतु-पर्वों के अवसरों पर किये गए नृत्य-गीत से नाटक विकास-पथ -पर प्रेरित हुआ। महाराष्ट्रमे भ्राजमी पौराणिक धार्मिक नाटकों का रूप देखने को मित्र जाता दै। इसे “ललित” कद्दते हैं । श्यद्वार-हास्य- प्रधान लौकिक प्राचीन नाटक भी वहाँ प्रचलित हैं| ये “'तमाशा' कद्दलाते हैं । विदर्भ में यद्दी दास्य-श्यज्ञार प्रधान लौकिक नाटक 'डिंढार! कहलाता द्दै। ज्ञामिल्लनाढ में भी 'कामन पर्डिगे? नाटक का भ्राचीन रूप दै । हतका विषय




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