हिन्दुस्तानी त्रैमासिक | Hindustani Trimasik

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Hindustani Trimasik  by श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी, अंग्रेजी संस्कृत ° देवराज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की एक छोटी सी कमेटी की बैठक में, एक प्रसिद्ध पंडित द्वारा संपादित मीमांसा की एक पुस्तक (शालिकनाथ की 'प्रकरण पंचिका' ) को छेकर प्रइन उठा-- पुस्तक का मूल्य कितना रखा जाय ? एक सज्जन ने एक हिन्दी पुस्तक का उदाहरण पेश करके . राय दी कि ज्यादा से ज्यादा १५ रुपये मूल्य रहे। लेकिन एक दर्शन के प्रोफेसर ने कहा-- . पुस्तक का मूल्य पच्चीस या तीस रुपये रखना चाहिए, हर हालत में पुस्तक की पाँच-सौ प्रतियाँ . बिक ही जायँगी। कुछ वर्ष पहले प्रयाग के किताब महल ने धर्मकीति के प्रमाणवातिक' का प्रकाशन किया था। मूल्य तीस रुपया रखा गया था। इस समय वह संस्करण खत्म हो चुका है। हाल ही' में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से हेवज्ञतंत्र” (अंग्रेजी, दो भाग) निकला है जिसका मूल्य पाँच पौंड, पाँच शिलिंग है यानी लगभग पचहत्तर रुपये। द রা मीमांसा कौ उक्त पुस्तक के संपादन के लिए विद्वान्‌ पंडित को तीन हजार रुपये दिये गे । प्रश्न है, संस्कत की प्राचीन पुस्तकों का इतना महत्त्व क्यों समझा जाता है ? प्रायः संस्कृत .. के शास्त्रीय विद्वानों में अपनी जानकारी का बड़ा गर्व रहता है। जेसा कि एक पंडित ने प्रस्तुत- छेखक से कहा, पुराने ग्रन्थो को पढ़ाने मे उन लोगों को एक-एक पद का अर्थ स्पष्ट करना पड़ता है। मतलब यह्‌ कि संस्कृत के शास्त्रीय ग्रन्थों में कहीं एक पद का भी अनपेक्षित सम्नावेश नहीं होता । परिभाषाभौं पर टीका करते हुए टीकाकार अक्सर पदकृत्य' करते है, जिसका मतलब होता है परिभाषा के प्रत्येक पद की सार्थकता की व्याख्या । पंडितों को शास्त्रीय संस्कृत ग्रन्थों की जानकारी का गवं होता है, यहु शायद उतने आश्चयं এ की बात नहीं है। कहा जा सकता है कि संस्क्ृत के विद्वान दकियानूसी किस्म के लोग होते हैं, जो परम्परा से चिपके रहना पसन्द करते हैं। लेकिन यहाँ एक दूसरी विचित्र चीज हमारे सामने... आती है; योरप के सैकड़ों पंडितों ने जीवनव्यापी साधना द्वारा संस्कृत वाडमय के विभिन्न ग्रन्थों... के अनुवाद, संपादन आदि किये हैं। यहाँ यह याद रखा जा सकता है कि गुलाम भारत के बुद्धि ` जीवियों मे आत्म-गौरव कौ भावना जाग्रत करने में विदेश के उन अनेक विद्वानों का घिशिष हाथ थां जिन्होंने भारतीय संस्कृति के महनीय तत्वों से परिचय करके, उनकी व्याख्या, प्रशंसा = आदि शुरू कौ । पिष्टे ङ-पौने दो-सौ वर्षो में संस्कृत, पालि आदि के सैकड़ों ग्रन्थो कायोरपीय : भाषाओं मे अन्‌वाद ओर प्रचार जहाँ एकं ओर योरपीय मनीषा की गणग्राहकता का प्रमाणदहै, हर हु . बहाँ दूसरी ओर हमारी पुरानी संसृति की. सप्राणता ओर महत्व का सबूत भीहै। ` ऊपर के वक्तव्यो का यह्‌ मतलब नहीं लगाना चाहिए कि सिफं भारतीय संस्कृतिनेही महत्वपुणं विचार व ग्रन्थ उत्पन्न किये । प्रसिद्ध जर्मन पंडित मैक्समूलर ने जहाँ एक ओद ऋवेद




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