दयोदय | Dayodaya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
173
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ओर निर्विकल्प समाधि चाहते हो तो कषार्यो का शमन कर रत्न्रय मार्ग
पर आदू हो जाओ, तभी कल्याण संभव है ।
इस प्रकार हम कह सकते है कि आचार्य ज्ञानसागरजी का विशाल
कृतित्व ओर व्यछ्छित्व इस भारत भूमि के लिए सरस्वती के वरद पुत्रता कौ
उपलग्ि कराती है इनके इस महान साहित्य सुजनता से अनेकानेक ज्ञान
पिपासुओं ने इनके महाकाव्यों परशोध कर डाक्टर की उपाधि प्राप्त कर अपने
आपको गौरवान्वित किया है। आचार्य श्रो के साहित्य की सुरभि बर्तमान में
सारे भारत में इस तरह फैल कर विद्वानों को आकर्षित करने लगी है कि
समस्त भारतवर्षीय जैन अजैन विद्वानों का ध्यान उनके महाकाव्यों की ओर
गया है। परिणामतः आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की ही संघ परम्परा के प्रथम
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के परम सुयोग्य शिष्य, प्रखर प्रवचन प्रवक्ता,
मुनि श्री १०८ श्री सुधासागर जी महाराज के सान्निध्य में प्रथम बार “आचार्य
ज्ञानससागर जी महाराज के कृत्तित्व एवं व्यक्तित्व पर ९-१०-११ जून १९९४
को महान अतिशय एवं चमत्कारिक क्षेत्र, सांगानेर (जयपुर) में संगोष्ठी आयोजित
करके आचार्य ज्ञानसागरजी के कृत्तित्व को सरस्वती की महानतम साधना
के रूप में अंकित किया था, उसे अखिल भारतवर्षीय बिद्वतत समाज के समक्ष
उजागर कर विद्वानों ने भारतवर्ष के सरस्वती पुत्र का अभिनन्दन किया है।
इस संगोष्ठी में आचार्य श्री के साहित्य-मंथन से जो नवनीत प्राप्त हुवा, उस
नवनीत की ज्निगधता से सम्पूर्ण विद्वत्त मण्डल इतना आनन्दित हुआ कि पृज्य
मुनि श्री सुधासागरजी के सामने अपनी अतरंग भावना व्यक्त कौ, कि- पूज्य
ज्ञानसागरजी महाराज के एक एक महाकाव्य पर एक एक संगोष्ठी होना चाहिए,
क्योकि एक एक काव्य मँ इतने रहस्मय विषय भरे हुए हैँ कि उनके समस्त
साहित्य पर एक संगोष्ठी करके भी उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता । विद्वानों
को यह भावना तथा साथ में पृज्य मुनि श्री सुधासागर जी महाराज के दिल
में पहले से ही गुरु नाम गुरु के प्रति.स्वभावतः कृतित्व ओर व्यक्तित्व के
प्रति प्रभावना बैठी हुई थी, परिणामस्वरुप सहर्ष हो विद्वानों और मुनि श्री
के बीच परामर्श एवं विचार विमर्श हुआ और यह निर्णय हुआ कि आचार्य
श्री ज्ञाससागरजी के पृथक पृथक महाकाव्य पर पृथक पृथक रुप से अखिल
भारतवर्षीय संगोष्ठी आयोजित को जाबे । उसी समय विद्वानों ने मुनि श्री
सुधासागर जी के सान्निध्य मे बैठकर यह भी निर्णय लिया कि आचार्य श्री
ज्ञानसागर जी महाराज़ का समस्त साहित्य पुनः प्रकाशित कराकर विद्वानों को,
पुस्तकालयों और विभिन्न स्थानों के मंदिरों को उपलब्ध कराया जाबे।
साथ में यह भी निर्णय लिया गया कि द्वितीय संगोष्ठी में बीरोदय
महाकाव्य को विषय बनाया जावे । इस महाकाव्य में से लगभग ५० विषय
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