भाग्य और पुरुषार्थ | Bhagya Aur Purushartha

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Bhagya Aur Purushartha by सूरजभान वकील - Surajbhan Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १८ ) ज़रूरतों के कारण ही यहां रेल में सफ़र करने को आये हैं। हमारे कर्मों का तो कुछ भी ज़ोर उन पर नहीं चल सकता है और न उनके कर्मों का कुछ ज़ोर हमारे ऊपर ही हो सकता हैं। इस ही प्रकार नरक स्वर्ग आदि अनेक गतियों से आ आकर जीव एक कुटम्ब में, एक नगर सें और एक देशमें इकट्ठें हो जाते हैं, वह भी सब अपने अपने कर्मानुसार ही आ-ओआ कर जन्म लेते हैं, हमारे कर्म उनको खेंच कर नहीं ला सकते हैं। रेलके मुसाफ़िरों की तरह एक स्थान में इकट्टा होकर रहने के संयोग से उनके द्वारा भी हमारा अनेक प्रकार का बिगाड़ संवार होता है जो हमें मेलना ही पड़ता है। दृष्टान्त रूप मान लीजिये कि एक दृमारे पड़ोसी के यहां बेटे का विवाह हैं। जिसके कारण रात दिन गाजा बाजा, गाना नाचना, खाना खिलाना आदि अनेक उत्सव होते रहते हैं उनके इस शोर-गलसे रातको हमको नींद भर सोना नहीं मिलता है, जिससे हम दुखी होते हैं; तो कया हमारे कर्मों ने ही हमको यह थोड़ा सा दुख पहुँचाने के वास्ते पड़ौसी के यहां उसके बेटे का विवाह रचवा दिया हे ? ऐसा ही दूसरा दृष्टान्त यह हो सकता हैं कि पड़ौ्सीके यहां कोई जवान मौत हो गई है, जससे उसको जवान विधवा रात दिन विलाप करती है, उसके इस विलापसे हमारी नींदमे ख़लल पड़ रहा है, तो क्या हमारे कर्मों ने ही हमारी नींदमें ख़राबी डालनेके वास्ते जवान पड़ौसी को मार कर उसकी जवान स्त्रीको विधवा बनाया हैं ! नहीं, ऐसा मानना तो बिलकुल ही हंसी की बात होगी | असल बात तो यहे ही माननी पड़ेगी कि ब्याह्द वालेके यहां भी उसके अपने ही कर्मों से विवह ग्रारम्भ हुआ और मरने वाले के यहां भी उसके अपने ही कर्मोंस मौत हुई, परन्तु पड़ौसमें रहने के संयोग से बह हमारी नींद में ख़लल डालनेके निमित्त ज़रूर हो गये। इसको और भी ज़्यादा स्पष्ट करनेके लिये दूसरा इशन्त यह हो




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