जैन-जागरण के अग्रदूत | Jain-Jagaran Ke Agradut
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
624
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)= ५
येः टेदीः-केदीः रेखाएँ
हमारे यहाँ तीथं ङ्कुरोका प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं, आचायेकि
कार्य-कलापकी तालिका नही, जेन-संघके लोकोपयोगी कार्योकी सूची
नहीं; जेन-सम्राटो, सेनानायको, मंचियोके बल-पराक्रम ओर शासन-
श्रणालीका कोई लेखा नही, साहित्यिकों एवं कवियोका कोई परिचय
नहीं । और-तो-और, हमारी आँखोंके सामने कल-परसों गृज़रनेवाली
विभूतियोंका कही उल्लेख नहीं; और ये जो दो-चार बड़े-बूढ़े मौतकी
चौखटपर खड़े हे; इनसे भी हमने इनके अनुभवोंको नहीं सुना है, और
शायद भविष्यमें दस-पाँच पीढ़ीमें जन्म लेकर मर जानेवालों तकके लिए
परिचय लिखनेका उत्साह हमारे समाजको नहीं होगा ।
प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आँखोंके सामने निरन्तर गृज़र
रहा है, उसे ही यदि हम बटोरकर रख सकें, तो शायद इसी बटोरनमें
कुछ जवाहरपारे भी आगेकी पीढ़ीके हाथ लग जाएँ । इसी दृष्टि से--
बीती ताहि बिसार दे आगेकी खुध लेहि
नीतिके अनुसार संस्मरण लिखनेका डरते-डरते प्रयास किया । डरते-
डरते इसलिए कि प्रथम तो मे संस्मरण लिखनेकी कलासे परिचिते
नहीं । दूसरे अत्यन्त सावधानी बरतते हुए भी यत्र-तत्र आत्म-विज्ञापनकी
यन्ध-सी आने लगी । नौसिखुआ होनेके कारण इस गन्धको निकालनेभें
समर्थ न हो सका । तीसरे मेरा परिचय क्षेत्र भी अत्यन्त संकुचित ओर
सीमित था\ फिर भी साहस करके दो-एकं संस्मरण, पत्रोको भेज दिये ।
प्रकाशित होनेपर ये अनेवरी टेढी-मेढी रेखाएं भी अपनोको पसन्द
आद, ओर उन्दीके आग्रहपर ये चन्द संस्मरण ओौर लिखे जा सके ।
इन संस्मरणोको ज्ञानपीठकी ओरसे पुस्तकाकार प्रकाशित करनेकी
बात उठी तो मुझे स्वयं यह प्रयत्न अधूरा ओर चिद्धोरापन-सा भालूम
देने नगा। “इन्हीं महानुभावेकि संस्मरण क्यो प्रकाशित किये जायं,
अमुक-अमुक महानुमावोके संस्मरण भी क्यो न प्रकाशित किये जायें ? ”
यह स्वाभाविक प्रश्न उठना लाज्जिमी धा । लोकोदय-पन्थमालाके विद्वान्
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