नागरीप्रचारिणी पत्रिका | Nagripracharini Patrika

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Nagripracharini Patrika by कृष्णानंद - Krishnanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिंदी के सौ शब्दों को निरक्ति १०१ सं० प्रिक, रोद के नीचे का भाग जहाँ कूल्दे को हृड्ियाँ मिलती हैं। तोन हड्डियों के पम्रिक्षने की जगह द्वोने के कारण यह स्थान चिक कहलाता है, जिसका हप तिरक अभी तक बोलियों में चालू है। त्रिक स्थान पर जो पदना जाता था वद आभूषण भी त्रिक कहलाता था। तेवर, तिउरी-कुपित दृष्टि, कोध-भरी चितवन । संक्षिप्त शब्दसागर में इसको व्युत्पत्ति तेह-क्रोध से मानी दै। वस्तुतः दोनों भोंहों के बीच का स्थान त्रिकुटी कहल्लाता है, उप्तो से तिहरी है। क्रोध के समय वही त्रिक्रुटी का स्थान लिंच या चद जाता है| थबई--घर बन नेवाला राज | सं० स्थपत्ति > थबइ-थबई । বান, दाँव--शब्दसागर में सं० द्‌ प्रत्यय से इसकी व्युत्पत्ति छुकाई है जो कल्पित दै । वस्तुतः सं० द्रव्य पे दव्व-दाव-दाँव हुआ । बह द्रव्य जो खिलाड़ी जुए में लगाते है, दाव या दाँव कदृदलाता है। सीसे बाद के भं निकै, जेषे फिसका दाँत है । पुस्ता--सं० दूश से पाली दृर्छ और उच्से धुस्स, धुरसा बना ज्ञात होता है। अथबवेद (८।६।११ ) में 'कतीदूशानि विश्रति', चमड़े के धुस्से झोढ़ने का उल्लेख है। शोक ॐ इलाहाबाद स्तंभ क्षेख में सफेद धुरसे पद्ना कर लड़ाकू भिक्ुओं को संघ स्लरे बाहर निकाल देने का आदेश है ( ओदातानि दुस्ानि )। नरसल, नरकुल, नरकुट--अथवं * ६।१६।४ में कुद्र अज्ञात औषधियों के नाम ै--नोलागलसाल्ला, भलघाला, सिन्ञाजाला । इनमें पहडे दो नामों के अंत का 'साला! पद्‌ पोघे या जल की घास के लिये प्रयुक्त ज्ञात हाता है। यह संभवतः निगराद भाषा के शब्द का धंस्छृत हप है। सं० नकन + सक्ञ-> नरसल । अथव नज्ञकट > नरकट शब्द भी नरसल के लिये प्रयुक्त दोता है । नहर--अक्कड़ी भाषा में नाढ का शर्थ है नहर । वहीं से यह शब्द नारु, न(रु, नहर के रूप में हम तक पहुँचा है । नेकुद्रा--नाक का नथुना । सं० नक्र-( नाक ) पुट > नक्कडड्‌ + क ~> नेकुड़ | देेमचंद्र ने 'अभिबान चिताभणि' में नाइक का पर्याय नझुटक (१२४४) शब्द दिया है जो नेकुदा से बनाया हुआ संत्कत रूप जान पड़ता है नेचकी, ने व कि --अच्छी गाय । शब्वूसागर में नेचिकी को संस्कृत कहा दहै। मध्यक्राद्षीन कोषों में नेचझो को गायों में उत्तत गाय माना है (ইনন্বর, সমি৩




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