मधु - रस | Madhu-ras

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Madhu-ras by भगवत जैन - Bhagvat Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१४ ] मघु-रस यह बात बढ़ी और सभी देश में छाई। इतनी कि चक्रवर्तिके कानोमें भी आई॥ सुन, दौड़े हुए आये भक्ति-भावसे भरकर | फिर बोले मधुर-बैन ये चरणोमे मुका सर ॥ थोगीश ! उसे छोड़िये जो इन्द है भीतर । हो जाय प्रकट जिससे शीघ्र आत्म-दिवाकर !! हो घन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी । प्रभु! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी ? मुमसे अनेकों चक्री हुए, होते रहेगे। यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेगे ॥ पर, आप स्चाईपे अगर ध्यानको देंगे। तो चक्रधरकी मूमि कमी कह न सकेंगे ॥ में क्या हूँ ?-तुच्छ ! भूमि कहाँ ? यह तो विचारों । काँटा निकाल दिलस अकल्याणको मारो ॥* चक्रीने नभी भालको धरतीसे लगाया। पद्‌-रजको उठा भक्तिसे मस्तकपै चद्ाया ॥ गोया ये तपस्याका दी सामथ्यं दिखाया ।- पुजना जो चाहता था वही पूजने आया ॥ फिर क्या था, मनका दन्द सभी दूर होगया । अपनी ही दिव्य-ज्योतिस भरपूर दोगया ।! कैवल्य मिला, देवता मिल पूजने श्राए। नर-नारियोने .खूब ही आनन्द मनाए ॥ चक्री भी श्रन्तरगमे फले न समाए। भाईकी आत्म जयपै अश्र आँखमें आए ॥ है वन्दनीय, जिसने ,गुलामी समाप्त की। मिलनी जो चाहिए, वही आज़ादी प्राप्त की ॥ + + +




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