लहरों के बीच | Lahron Ke Beech

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Lahron Ke Beech by सिद्धेश - Siddheshसुनील गंगोपाध्याय - Suneel Gangopadhyaya

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सुनील गंगोपाध्याय - Suneel Gangopadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लहरों के बीच १३ दरअसल दीपू उस समय अरूप के बारे में सोच रहा था। अरूप के उद्विग्न चेहरे की तरफ देखकर लगा था कि अरूप उसके बारे में बहुत हैरान हो उठा है, यानी अरूप सोच रहा है कि दीपू की तरह यदि भेरे ऊपर ऐसी बीतती, यदि मेरे पिताजी की बीमारी का हठात्‌ तार आता तब मैं संभव था, और भी हैरानी अनुभव करता। अरूप काफी धनी परिवार का है। भरा-पूरा परिवार है। महीने में एक वार अरूप के पिता के स्वास्थ्य की परीक्षा करने डाक्टर आते हैं। दीपू जो मौसा को लेकर गर्व कर रहा था, थोड़ा सिर दर्द करने पर ही उस तरह के डाक्टर को अरूप के पिता जब चाहें बुला सकते हैं। अरूप के पिता की मृत्यु के वाद भी, अधिक-से-अधिक अरूप की शादी एक वर्ष के लिए टल सक्ती है । ९ उनको पहुंचाने के लिए परमेश आया था। गहरी लाल रंग की डी- लक्स बस, ठीक साढ़े सात बजे छूटती है, कितु उस दिन वह पैतीस मिनट देर तक भी नहीं छूटी । रूंगटा-परिवार का एक नौकर इसी बस से टाटा- नगर बर्फ लाने जायगा, वह अबतक नहीं आया है। रूंगटा इस इलाके के राजा-महाराजा से भी अधिक प्रतापशाली हैं। उनके नौकर की अवहेलना कौन करेगा ? परमेश इस बात पर ड्राइवर से लड़ बैठा | वह भी सरकारी अफसर है, वह अपना प्रताप भी दिखाना चाहता है। हालांकि आधीरात से पहले कोई गाड़ी नहीं है और बस से टाटानगर तक पहुंचने में अधिक-से-अधिक दो घंटा लगेगा। दीपू बिना उत्तेजित हुए सहज भाव से खिड़की के पास माथा टेककर बैठा था। परमेश अकेला पड़




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