काव्य कला और शास्त्र | Kavya Kala Aur Shastra
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
157
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काव्य का भाव से सम्बन्ध है। भाव हृदयफ्ज्ञ को लेकर चलता है । हृदय
पक्ष अपने आप में पूर्ण नहीं होता, क्योंकि वह विचार से सम्बद्ध होता है ।
विचार का विश्लेषण, जो मनोविज्ञान का स्वरूप है, उसकी श्रवस्थिति का
ही नहीं उसकी परिपुष्टि का भी आधार है| इसीलिये काव्य और मनोविज्ञान
कर गहरा सम्बन्ध है जो आ्राज के युग में श्रधिकाधिक प्रभाव डाल रहा है।
काव्य का मनोविज्ञान नीरस नहीं हो सकता । वह वर्गीकृत विचारों और
अनुभूतियाँ का वेशानिक विश्लेषण भर बन कर प्रभाव नहीं डाल सकता।
दुरु से दुरूह मानसिक उलभन काव्य का विषय हो सकती हैं किन्तु वह तभी
काव्य जन सकती है जब न केवल सामाजिक रूप धारण करे, वरन् श्रमिन्यक्ति
में ऐसी हो जिसे दूसरे भी समझ सके | इसे ही साधारणीकरण कहते है।
प्राचीनों ने जब मनुष्य में “सामान्यः की प्रतिष्ठा की थी, तब उनके
सामने पने युग के बन्धन ये । भरतमुनि के पले भी श्रनेक विचारक हये ये
जिन्होंने नाव्यशासत्र पर लिखा था। भरत तक आते आते वह शास्त्र इतना
परिमार्जित हो चुका था कि उसमें सब तत्कालीन विचार अपनी पूर्णता की एक
सीमा प्राप्त कर चुके थे । भरत के पहले के आचार्य्यों के समय ही संभवत
यह झगड़ा उठ खड़ा हुआ था कि काव्य आखिर किसके लिये ! यह संघर्ष
तत्कालीन उच्च वर्णों से उत्तर कर इतर वर्णों में भी अपना रूप धारण करने
लगा होगा | श्र॑ततोगत्वा भरतमुनि के समय म इसका वह समाधान स्वीकार
कर लिया गया जो भरत मै प्रतिपादतं किया था । भरत ने सामान्य? की
प्रतिष्ठा की थी | मनुष्य मात्र समान हैं अतः काव्य सबके लिये ही होना
चाहिये | इसका अर्थ यह था कि भरत के पहले काव्य को, मनुष्यमात्र की
समान भावभूमि के आधार पर, सबके लिये स्वीकार नहीं किया जाता था |
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