समाज - विज्ञान | Samaj - Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(. 5१३ 9 कानून के तत्त्व उसकी बाहरी परिस्थिति से निश्चित किये जाते हैं । मनुष्य जपनी चतुराई से, अपनी धूतता से; अध्नी कुटिकता से, अन्तः करण और बाहरी जगत के बीच में इतना जबदंस्त विरोध उत्पन्न कर देता है कि जिसे देख कर बड़े-बड़े विचारक भी दड़ हो जाते हैं । आज- कुछ के मानवी-न्यायालयों में कानून को प्रधानता दी गई है। क्योंकि न्याय का तत्त्व निश्चित करने के योग्य तराजू उनके पास नहीं रहती । उसमें उनसे पद-पद पर भूले हो जाने की सम्भावता रहती है। मगर कानून ऐसी वस्तु है, जिसका सम्बन्ध बिल्कुर प्रत्यक्ष से है, मिसे धोखा होने की विशेष सम्भावना नहीं रहती। लेकिन कानूम की इस प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि कई न्याय की दृष्टि से निरफ्राध मनुष्य तो अर्थ, वाक्शक्ति या इल ॐ अभाव ते दण्डित हो जाते है, भौर छ सच्चे अपराधी इन्दी वातां की बदौरुत भानन्द्‌ से आजाद्‌ फिरते रहते हैं । कानून की भाषा के अन्तगंत इतने पेंच उत्पन्न कर दिये गये हैं, जिनकी वजह से कई अपराधी निरपराध भौर निरपराधी अपराधी करार दिये जाते हैं। और यह सब बातें खुलमखुला अभिनीत होती हैं। हमने बतलाया है :+ यह स्थिति समाज के लिए अभीष्ट नहीं हो सकती । समाज की सुब्यंवस्था के लिए न्याय और कानून के बीच ऐसा सभी करण होना चाहिए जिससे इनका यह पारस्परिक विरोध मिट जाय। दुण्ड-नीति के विषय में हमसे जो विचार प्रकट किये हैं, उनसे सम्भव है कुछ पांठकों का विरोध हो । हम भी यह मानते हैं कि समाज की एक विशिष्ट अवस्था ऐसी होती है जिसमें दण्ड-नीति के प्रयोग की आावरयकता होती है'। फ़िर भी दण्डनीति का सैद्धान्तिक सूप से मथन करना अजुपयुक्त ही ग्रद्म होता है। संसार का इतिहास और मानस- शास्त्र के तत्त्त हमें इस नीति के बिलकुल विरुद्ध अनुभव प्रदान करते हैं। जिस महान्‌ कल्याण की भाला मे यष नोनि अस्त्व मे भाई है अह कल्याण हसते सम्पन्न होता हुआ दिखलाई नहीं देता । इस भयंकर नीति




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