स्तुतिविद्या | Stutividhya

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पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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वसुनन्द्याचार्य - Vasunandyacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना २ श्लोकमें जो अक्षर हैं वे ही उत्तरवर्ती श्लोकमें हैं; परन्तु अथ उन सबका एक-दूसरे से प्राय: িন্ন है और वह अक्ष को सटा कर तथा अलगमे रखकर भिन्न লিল হালা অয অনাথ कल्पना-द्वारा संगठित किया गया हे'। श्लोक नं० १०२ का उत्तराघे है-'श्रीमते बद्ध मानाय नमो नमितविद्विपे ।! अगले दो श्लोकोंका भी यही उत्तराध इसी চ্ছাহ-্গলক্কী 1 ये हुए है; परन्तु वहाँ अक्षरोंके विन्यसभेद और पदादिककी जुदी कल्पनाओंसे अथ प्राय: बदल गया है । कितने ही श्लोक ग्रन्थमें ऐसे ह जिनमे पू्वाधेके विषमसं- ख्याडु अक्षरोंको उत्तराधके समसंख्याहु अक्षरोंके साथ क्रमशः मिल कर पढ़नेसे पृत्रा्ध और उत्तराधके विषमसंख्याडू अक्षरों- को पूवार्धफे समसंख्याङ््‌ अत्षरोंके साथ क्रमश :मिलकर पढ़ने- से उत्तराधे होजाता है । ये श्लोक 'मुरजः अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते है; क्योकि इनमे मृङ्गके बन्धना जैसी चित्राकृतिको लिये हुए श्र्तरोका बन्धन रक्खा বাতা ই। ও चित्रालङ्कार थोड़े थोड़ेसे अन्तरके कारण अनेक भेरोंको लिये हए हैं। और अनेक श्लोकोंमें .समाविष्ट किये गये हैं। कुछ श्लोक ऐसे भी कलापूर्ण हैं जिनके प्रथमादि चार चरणोंके चार आद्य अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके चार श्रन्तिम अक्षरोंके साथ मिलाकर पढ़नेसे प्रथम चरण बन जाता हैं | इसी तरह प्रथमादि चरणोके द्वितीयादि अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके उपान्त्यादि अक्षरोंके साथ साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नपर द्वितीयादि चरण बनजाते हैं, ऐसे श्लोक 'अधभश्रम' कहलाते हैं*। १. देखो, श्लोक ४, १९; २५, ५२; ११-१२, १६-१०, ३७-३८, ४६-४७, ७६-७७, ६३-६४, १०६-१०७ | २, देखो श्लोक न० ३, ४, १८, १६, २०, २१, २७, ३६, ४३, ४४, ९६, ६०,६२।




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