संस्कृत साहित्य का इतिहास | Sanskrit Sahity Ka Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
73 MB
कुल पष्ठ :
1126
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २ )
अध्येताओं को ऐसी विक् स्थिति में ला पहुँचाया कि समग्र कंठाग्न ज्ञान को
लिपिब्रद्ध करने |के लिए उन्हें विवश होना पड़ा। तभी से सारा मौखिक
ज्ञान, सारी मौखिक विद्याएँ और सारे कंठाग्र शास्त्र पन्नों पर, भर्थात् भोजपन्रों,
ताड्पतन्रों या ताम्र-सत्तिकापशन्नों अथवा वृक्ष की छालों पर लिखे जाने लगे ।
संप्रति हमें सर्वाधिक प्राचीन पोधियाँ भोजपश्नों ओर ताडपत्रों पर लिखी
हुई मिलती हैं। ताडपतन्र की पोधियाँ स्योल्मुखी कलम या लौह-लेखनी से
लिखी जाती थीं। भोजपतन्र पर लिखी हुईं पोथियाँ, तालपतन्र पर लिखी हुई
पोथियों की अपेक्षा कम संख्या में उपलब्ध होती हैं। ताड़पत्नीय और भोजपन्नीय
पोथियों को लिखने के लिए बड़ी सूझबूझ्ष एवं साधना की आवश्यकता है। इन
पोधियों के लेखक विद्वान होने के साथ-साथ निपुण कछाकार भी होते थे ।
आज अधिकाँश पोधियाँ हमें मांडपम अर्थात् देशी हाथ के बने कागज पर
लिखी हुई मिलती हैं| यद्यपि चीन में कागज १०५६ ई० में ही बनाना आरंभ हो
गया था; किन्तु निर्यात में वह इतना कम था कि दूसरे देश बहुत समय লক্ক
उसके लाभ से वंचित रहे। भारत में देशी हाथ क्रे कागज पर पोधथियाँ आज्ञ
से लगभग दुस-बारह सौ वर्ष पूवं अर्थात् आठवीं-दसवीं शताब्दी ईसवी में लिखी
जाने लगी थीं; फिर भी इस प्रकार की पोथियाँ हमें चौदहवीं शताब्दी से पहिले
की कम मिलती हैं ।
क्षति प्राचीनकाल में संरक्षित-संग्रहीत भारत की यह विपुल ग्रन्थ-संपदा
धरमंद्रोहियों द्वारा अनेक बार विनष्ट किए जाने पर ओर बोद्धधर्म के प्रचार-प्रसार
से लेकर आंग्ल-शासन के अन्तिम दिनों तक सहसों की संख्या में विदेशों को
श्रवासित होने पर भी आज हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक भारत के सभी
अंचलों में अपरिमित संख्या में बिखरी हुई हैं। हमें यह जानकर विस्मय होता
है कि आज ऐसी भी अनेक पोथियाँ हमें चीन, जापान, जम॑नी भौर ब्रिटेन प्रभ्गुति
देशों में सुरक्षित मिलती हैं, जो न तो अपनी जन्मभूमि भारत में और न अपनी
मूलभाषा संस्कृत में ही हैं । संसार का ऐसा बृहत् पुस्तकालय कोई भी शेष नहीं
है, जहाँ भारत के ये मूल्यवान् ग्रन्थरज्न सुरक्षित और अतिशय रूप में सम्मानित
नहीं हो रहे हें ।
किन्तु हस दृष्टि से यदि हम अपने देश की इस ज्ञान-थाती के सम्बन्ध में
विचार करते हैं तो हमें निरुस्साहित और निराश ही होना पड़ता है। भारतीय-
साहिध्य के शोध संस्कार भौर वेजश्ञामिक विधियों से परीक्षित उसकी जितनी भी
दिशाएँ आज तक प्रकाश में आई हैं, उनको प्रकाशित करने का बहुत बड़ा श्रेय
विदेशी विद्वानों को ही दिया जाना चाहिए। इन मूक््यवान् पुरानी पोथियों और
दुलंभ कछाकृतियों का पता छगाने में भी पाश्चात्य विद्ान् अधिक उस्सुक रहे हैं;
भौर यथपि पाश्चास्यों की यह निष्ठा ओर छगन परिणाम में भारत के लिए उतनी
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