नव पदार्थ | Nav Padharth

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Nav Padharth by श्रीचन्द रामपुरिया - Shrichand Rampuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वरुप १० ८३-- काल अष्पी अजीव द्रव्य है : काल के अनन्त द्रव्य है: काल निरन्तर उत्पन्न होता रहा है! वर्तमौन काल एक संमंध रूप है; १४५--काल द्रब्प शाइवत-अशाइवत वंसे १ प० ८६; १६--काल का क्षेत्र १० ८७; १७-काछ के स्क आदि मेद नहीं हैं ० ६६; १८--आगे देखिए टिप्पणी २१ पृ० ६१; १६--काल के भेद १० ६१; २०--अनन्त काह-चक्र का पुदूगल परावर्त होता है पृ? ६३; २९--काज का क्षेत्र प्रमाण १० ६३४ २२--काल की अनन्त पर्याणें और समय अनन्त कैसे 2५० ६४; र३े-छूपी पुदूगल पृ» ६४; २४--पुदुगल के चार भेद पृ० ६७; २४--पुद्गल का उत्कृष्ट और जधन्य स्कंव पृ० १०२; २६-२७---लोक में पुदुगल प्र्वश्र हैं। वे गतिशील हैं प० १०४; २८४--पुदुपल के चारों भेदों की स्थिति प५ १०४; २६--स्कंयादि शूप पुद्गर्ौ की अनन्त पयर्यिं पृ १०५; ३० पौद्गलिक वस्तं विनाशशील होती हैं पृ० १०५; ३१--भाव पुद्गछ के उदाहरण ५० १०६---आढठ कमे यचि श्रीर्‌ : छाया, धूप, प्रभा--कान्ति, अन्धकार, उयोत्त आदि : उत्तराध्यवन के क्रम से शब्दादि पुदूगल-परिणामों का स्वरूप : घट, पट, वस्त्र, शस्त्र, भोजन और विश्वतियाँ; ३२--पुदगल विषयक सिद्धान्त पृ० ११५; ३३--पुहुगल शाश्वत्त-भशाश्वत प° १२६; ३५४--पदट्दरव्य समाप मे पु १२७; ३५---जीव भौर धघर्मादि द्वव्यों के उपकार ० ११८; ३६--सावर्म्य बैधर्म्य 9० १२६; २७--लोक और अलोक का विभाजन पृ० १३०; ३े८5-पोक्ष-हार्ग में द्रब्यों का विवेचन क्यों ? पृ८ १३२ 1 ३--पुण्य पदार्थ (ढाछ : १) चृ० १३३-६७६ पुण्य और लोकिक दृष्टि (दो० १); पुण्य और ज्ञानी की टांट (दो० २); विनाशशीलछ और रोगोत्पन्न सु (दौ ३-४) पृण्म कर्म है अत; हेय है (दो० ५); पुण्य की परिभाषा (गा० १); आठ कर्मो में पुण्य कितने ? (गा २); पुष्य की अनन्त पयाये (गा ३); पुष्यं का वन्ध : निरय योग ते (णा० ४); सावावेदनीय कपे (गार ५); शुम भायुष्य कमे : उसके तीन मेद (भा०६); देवाधुप्य, मनुप्या- पुष्य, तिवंञ्चायुप्य लशा ७) शुभ नाम कम्‌ ‡ उतके ३५७ भेद (गा० ८-२९); उद- गोत्र कर्म (गा० ३०-३१); पुण्य कर्मो' के नाम गृणनिणक्न हैं (गा० ३२-३४); पुण्योदय के फल (गा० ३५-४५); पौदृगलिक और आत्मिक सुर्खों की तुलना (गा०- ४६-५१) पुण्य की बाज्छा से पाप-वन्‍्ध (गा० ५२-४३) पृण्य-बन्ध के हेतु (गा० ५४-५६); पुण्य काम्य क्यो नहीं ? (गा०-५७-५८); त्याग से निर्जरा भोग से कर्म- बन्च (गौ० ५६); रचना-स्थाव और काल (गा* ६०)।




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