नव पदार्थ | Nav Padharth
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
897
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीचन्द रामपुरिया - Shrichand Rampuriya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्वरुप १० ८३-- काल अष्पी अजीव द्रव्य है : काल के अनन्त द्रव्य है: काल
निरन्तर उत्पन्न होता रहा है! वर्तमौन काल एक संमंध रूप है; १४५--काल
द्रब्प शाइवत-अशाइवत वंसे १ प० ८६; १६--काल का क्षेत्र १० ८७; १७-काछ
के स्क आदि मेद नहीं हैं ० ६६; १८--आगे देखिए टिप्पणी २१ पृ० ६१;
१६--काल के भेद १० ६१; २०--अनन्त काह-चक्र का पुदूगल परावर्त होता है
पृ? ६३; २९--काज का क्षेत्र प्रमाण १० ६३४ २२--काल की अनन्त पर्याणें और समय
अनन्त कैसे 2५० ६४; र३े-छूपी पुदूगल पृ» ६४; २४--पुदुगल के चार भेद पृ० ६७;
२४--पुद्गल का उत्कृष्ट और जधन्य स्कंव पृ० १०२; २६-२७---लोक में पुदुगल प्र्वश्र
हैं। वे गतिशील हैं प० १०४; २८४--पुदुपल के चारों भेदों की स्थिति प५ १०४;
२६--स्कंयादि शूप पुद्गर्ौ की अनन्त पयर्यिं पृ १०५; ३० पौद्गलिक वस्तं
विनाशशील होती हैं पृ० १०५; ३१--भाव पुद्गछ के उदाहरण ५० १०६---आढठ
कमे यचि श्रीर् : छाया, धूप, प्रभा--कान्ति, अन्धकार, उयोत्त आदि : उत्तराध्यवन
के क्रम से शब्दादि पुदूगल-परिणामों का स्वरूप : घट, पट, वस्त्र, शस्त्र, भोजन और
विश्वतियाँ; ३२--पुदगल विषयक सिद्धान्त पृ० ११५; ३३--पुहुगल शाश्वत्त-भशाश्वत
प° १२६; ३५४--पदट्दरव्य समाप मे पु १२७; ३५---जीव भौर धघर्मादि द्वव्यों के
उपकार ० ११८; ३६--सावर्म्य बैधर्म्य 9० १२६; २७--लोक और अलोक का
विभाजन पृ० १३०; ३े८5-पोक्ष-हार्ग में द्रब्यों का विवेचन क्यों ? पृ८ १३२ 1
३--पुण्य पदार्थ (ढाछ : १) चृ० १३३-६७६
पुण्य और लोकिक दृष्टि (दो० १); पुण्य और ज्ञानी की टांट (दो० २);
विनाशशीलछ और रोगोत्पन्न सु (दौ ३-४) पृण्म कर्म है अत; हेय है (दो० ५);
पुण्य की परिभाषा (गा० १); आठ कर्मो में पुण्य कितने ? (गा २); पुष्य की
अनन्त पयाये (गा ३); पुष्यं का वन्ध : निरय योग ते (णा० ४); सावावेदनीय
कपे (गार ५); शुम भायुष्य कमे : उसके तीन मेद (भा०६); देवाधुप्य, मनुप्या-
पुष्य, तिवंञ्चायुप्य लशा ७) शुभ नाम कम् ‡ उतके ३५७ भेद (गा० ८-२९); उद-
गोत्र कर्म (गा० ३०-३१); पुण्य कर्मो' के नाम गृणनिणक्न हैं (गा० ३२-३४);
पुण्योदय के फल (गा० ३५-४५); पौदृगलिक और आत्मिक सुर्खों की तुलना (गा०-
४६-५१) पुण्य की बाज्छा से पाप-वन््ध (गा० ५२-४३) पृण्य-बन्ध के हेतु (गा०
५४-५६); पुण्य काम्य क्यो नहीं ? (गा०-५७-५८); त्याग से निर्जरा भोग से कर्म-
बन्च (गौ० ५६); रचना-स्थाव और काल (गा* ६०)।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...