नाया धम्मकहाओ | Naya Dhamkahao

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ता (प्रथम संस्करण से) धर्म, दर्थन, समाज श्रौर सस्छति का भव्य प्रासाद उनके मूल-भूत प्रथो कौ गहरी नीव पर टिका हृग्रा है। विश्व से जितने भी धर्म और सप्रदाय दै उनके वरिष्ठ महापुरुषो ने, प्रवतंको ने जौ पावन उपदेश प्रदान किये वे उपदेण वेद, त्रिपिटक, वाइविल, कुरान या गणिपिट्कके रूप मे जाने श्रौर पहचाने जाते हैं। उन्ही ग्रयोकोकेन्द्र वनाकर्‌ विश्व के धर्म और दर्शन विकसित हुए हैं । वेद ओर आगम ब्राह्मण सस्कृति के मूल-भूत ग्रन्थ वैद ह । वेद वैदिक चिन्तको के विचारो की श्रमूल्य निधि ह। ऋष्वेद प्रादि की विज्ञगण विश्व के प्राचीनतम साहित्य में परिगणना करते हैं। ब्राह्मण मनीषियो ने वेदो के शब्दों की सुरक्षा का श्रत्यधिक ध्यान रखा है। कही वेदमन्त्र के शब्द इधर-उधर न हो जाये, इसके लिए वे सतत जागरूक रहे। वेदो के शब्दों मे मन्त्रशक्ति का आरोप करने से उनमे शब्दपरिवरतेन नही हुए । क्योकि वैदिक विज्ञो ने सहितापाठ, पादपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ, घनपाठ के छप में वेदमन्त्रों के पठन श्रौर उच्चारण का एक वैज्ञानिक क्रम बनाया था, जिसके कारण वेदों का शाव्दिक कलेवर वर्तमान में ज्यों का त्यो विद्यमान है । पर बौद्ध और जैन चिन्तको ने शब्दों की श्रोर अधिक लक्ष्य न देकर अर्थ पर विशेष ध्यान दिया। उन्होने म्र्थं कौ किचित्‌ मात्र भी उपेक्षा नहीं की, जिससे जेन श्रागम और वीोद्ध त्रिपिठकों मे अनेक पाठान्तर उपलब्ध होते हैं । विविध पाठान्तरो के होने पर भी श्रर्थ के सम्बन्ध मे मतभेद नही है। जैन और बौद्ध शास्त्रों में मन्त्रशक्ति का आरोप नही किया यया | इसलिए भी उनमे शब्द-परिवतेन होते रहे हैं । जन, वौद्ध श्रौर वैदिक साहित्य का जव हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वेद एक ऋषि के द्वारा निर्मित नहीं हैं, श्रपितु श्रनेक ऋषियों ने समय-समय पर मन्त्रो की रचनाएँ की है, जिसके कारण वेदों मे विचारो की विविधता है । सभी ऋषियो के विचारों मे एकरूपता हो, यह कभी संभव नही है | वैदिक मान्यतानुसार ऋषिगण मन्त्रद्रष्ठा थे, मन्त्रद्नष्ठा नही थे, उन्होंने अपने श्रन्तश्चक्षुग्रो से जो देखा और परखा उसे शब्दों मे अभिव्यजना दी थी । पर जैन आागम श्र वौद्ध त्रिपिक श्रमण भगवान्‌ महावीर और तथागत बुद्ध के चिन्तन का ही मूर्तं रूप हैं। उनके प्रवक्ता एक ही हैं, इसलिए उनमे विभिन्नता नही आई है । दूसरी महत्त्वपूर्ण वात यह है कि वेद में ऋषियो के ही शब्द हैं जब कि जैन श्रागमो में तीर्थंकरो के शब्द नही हैं। तीर्थंकर तो श्रर्थ रूप में अपना प्रवचन करते है, शव्द रूप मे सूत्रवद्ध स्वना गणधर करते हैं। श्रत जैन प्लागम के शब्द गणधरो के है १ श्रावश्यकनिर्युक्ति गा० १९२ (ख) घवला भा. १ ६४-७२ १७




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