चन्द्रावली वा कुलटाकुतूहल | Chandrawali Wa Kulatakutuhal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९४ चन्द्रावली । १९. গা + हुई। वह रंडी की लड़की चंपः से । की लड़वी चंप। से डेढ़ बरस दोटी थी, पर झ्रत शकल में वे दोनों ऐशी एक थीं कि यदि उन दौनों को एक जगह बैठा दिया जाता तो यह कोई नहीं पहचान सकता कि, इन दोनों में कौन चंपा है, पौर कौन चन्द्रावल्यै! ` “« उब रंडी का नाम चुद्दी या और उसकी लड़को का नाम मेरे ससुरजी ने चंद्रावली रक्खा था। चंपा खझौर चंद्रावली की सूरत शकल बिल्कुल एक सी क्यों थी, इसका भेद तो ईश्वरं ही जाने; किन्तु हाँ ! उन दोनों के पहचानने के लिये ही कदाचित नार! यण ने उन दोनों में कुछ थोड़ा साफरक डाल दिया था; अर्थात्‌ चन्द्रावली के बाएं गाल पर एक तिल या, पर चंपा का सुखड़ा बिल्कुल बेदाग था। इसी निशानी से वे दोनों चट पहचानली जाती थीं । यदि चन्द्रावली के गाल पर तिल न हौता तो नित्य ही चन्द्रावली चंपा, रौर _ चंपा चन्द्रावली बनजातीं खरौर किर उन दोनोका | चौन्‍्ह निकालना कठिन हो नहीं, बरन रुक प्रकार স্খলন हो जाता ! 000 ४ तिदान; घर में रहने के कारण चंपा जोर चन्द्रा- वलौ रक बाय हो खेललीं, खालीं, पीतीं, सोतों और, पढ़ती-लिखती थीं । मेरे चसुरजौ कौ यह इच्चा यौ कि स्याली हने पर किसी गंधव के साथ चन्द्रावली करा व्याह कर दिया जायगः; किन्तु रेखा वे न कर सके । इसका कारण यह हुआ कि चंपा के विधवा होते ही उनका चित्त संसार से रेवा हट गया कि चुन्नों को बहुत कुछ दे खेकर उन्होंने अपने घर से निकाल दिया और झाप पत्थलगढ़ का सकान, बाग, बगीचा आदि सब




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