श्रेष्ठ बौद्ध कहानियाँ | Shrestha Bauddha Kahaniyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“भौतम बहुत से श्रमण-्राह्मण शुद्ध ब्रह्मचारी होमे का दावा पेश करते हैं, क्या आप उनमें है ? ” “हाँ भारद्वाज ! मैं तो उन्ही आदि ब्रह्म चारियों में हूँ । मुझे ज्ञान प्राप्त होने के पहले ऐसा आभास हुआ कि गृह-वास जंजाल है, ससार के विग्नहों का मूल है। मनुष्य सन्‍यास के सुविस्तृत मैदान ही में जीवन के वास्तविक सुखों को प्राप्त कर सकता है। संन्यास झंख की भाँति उज्ज्वल, मोती जैसा चमकदार और सत्य की भांति सुन्दर है। मैं अपने इसी आभास-आधार पर जवानी ही में अपने माता-पिता को.रोता-कलपता छोड़ गृह से अलग हो गया। उस समय मेरे शरीर पर राजसी वस्त्र ये, सिर पर काले-केले धुंघरले वाल थे। पर उन बस्त्रों को छोड़ने और उन बालों को काटने में मुझे तनिक भी ममता রা हुई । भारद्वाज ! यह सब संन्यास-स्रवृत्ति की ही तो प्रभुता थी। “ संन्यासी हो मैं शांति और चिरंतन सुख की खोज में संसार में निकला । सौभाग्य से आलार कालाम के पास जा पहुँचा । मैंने उससे कहा--श्रेष्ठ ! मैं धर्म में ब्रह्मचयं-वास करना चाहता हूँ। वस, रात के तीसरे पहर तम हटा, आलोक उत्पन्न हुआ। ज्ञान की सुनहली किरणों ने, अज्ञानता के काले पर्दे को फाड़कर मेरे हृदय को जगमगा दिया। ” सगारव बुद्ध भगवान्‌ की बातो को सुनकर चकित-सा हो गया। उसके हृदय पर इन बातों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह थोड़ी देर तक मन्त्रमुग्ध की तरह बुद्ध की आकृति की ओर देखता ही रह गया। जब उसका ध्यान भंग हुआ, तब उसने कहा-- “गौतम! आप घन्य है। मैं भुला हुआ था। मुझ भूले हुए को अब अपनी शरण में लीजिये ! ” संगारव ने “मैं भिक्षु सध के प्रति अपनी हादिक श्रद्धा प्रकट बोंद्ध श्रेष्ठ कहानियाँ / १४




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